कथानगर में हडकंप मचा हुआ
था. श्रीमान पाठक जी असमय लापता हो गए थे. जैसे ही खबर फैली जो जहाँ था वही से भागा.
यथार्थ कहानी, प्रेमकहानी, रोमांचक कहानी, व्यंग्य महोदय, हास्यकथा महाशय, कविता
कुमारी सब के सब रोना पीटना मचाते हुए श्रीमान पाठक जी के घर पहुंचे. हाहाकार मच
गया. पाठक जी नहीं रहे. कथानगर बर्बाद हो गया...
चौपाल बैठी. पाठक जी का न
होना स्वीकार नहीं किया जा सकता था. कुछ न कुछ तो करना ही था. कथानगर को बचाना
ज़रूरी था. तय किया गया कि जिन कारणों से पाठक जी लापता हुए है उसका पता लगाकर उसके
लिए ज़िम्मेदार व्यक्ति को दण्डित किया जाए. क्या पता इससे पाठक जी वापस आ जाए.
पंचायत बैठी. सरपंच श्री
आलोचक कुमार ने भवें तरेरते हुए कहाँ, “पाठक जी का यह हश्र तो होना ही था. जिस तरह
से कथानगर ने पाठक जी की उपेक्षा की और अनाप शनाप कहानियों की खुराक उन्हें दी
उससे उनका स्वास्थ्य बिगड़ा, मन उचटा और वे चले गए. मैंने पहले ही कहा था कि कथानगर
में पठित सामग्री का स्तर ऊँचा होना चाहिए किन्तु मेरी किसी ने न सुनी. पाठक जी के
गायब होने के लिए सब के सब ज़िम्मेदार है.”
कहानी परिवार का दूसरा लड़का
यथार्थ कहानी भड़क गया, “हम पर इलज़ाम न लगाइए सरपंच जी. पाठक जी कमअकल इंसान थे.
बताइए क्या हम उनके घर उनका हाल चाल पूछने न जाते थे? अक्सर जाते थे. किन्तु आजतक
उन्होंने हमें चाय तो क्या पानी तक के लिए न पूछा. अव्वल तो उन्हें हमारी भाषा ही
न समझ में आती थी. एक दिन तो उन्होंने हमें साफ़ साफ़ कह दिया कि हमारे घर न आया
करो. आखिर हमारी भी कोई इज्ज़त है. फिर हम न गए उनके घर. मैं होशियार पाठक बेवक़ूफ़
तो मैं क्या करू?”
तमतमाकर आलोचक कुमार ने
यथार्थ को डपटा, “पाठक जी का नाम इज्ज़त से लो. सर्वेसर्वा है वह कथानगर के. वह न
रहे तो कोई रद्दी के भाव न पूछेगा तुम्हे...”
व्यंग्य महोदय मुस्कुराकर
बोले, “इन्हें फर्क नहीं पड़ता सरपंच जी. पाठक जी रहे न रहे, पुस्तकालयों में
इन्हें ठिकाना मिल ही जाता है. इनके बड़े भाव है वहाँ. पाठक जी बेचारे सीधे सादे.
ये महाशय रिहायशी... इनका खर्चा पाठक जी उठा न पाते थे. ये ठहरे अमीरों के गरीबी
चिंतन. कोई मुफलिस कथानगर की बदौलत रईस न हुआ है आज तक.”
यथार्थ ने पलट प्रहार किया,
“मेरी हैसियत से जलते हो तुम सब. इतनी ही चिंता है पाठक जी कि तो प्रेमकहानी से
पूछो. बड़ा मेल जोल था इसका पाठक जी से.”
सारी नज़रे प्रेमकहानी की
तरफ उठी. वह घबराकर बोली, “मैंने कुछ नहीं किया. रो.. रोमांचक कहानी से पूछो.”
रोमांचक बीच में बोल पड़ा, “मेरी
तो पाठक जी शुद्ध से भेंट ही न हुई आजतक. उनके घर के रास्ते पड़ा रहता था. क्या पता
दिख जाए कभी. मगर वो तो देखकर भी अनदेखा कर देते थे. मैंने कई बार उनके घर में
घुसने का प्रयास किया. खिड़की से, पिछले दरवाजे से, चिमनी से यहाँ तक की स्टोर में
मैंने और भुतहा कहानियों ने कई दिनों तक डेरा डाल रखा था कि पाठक जी के दिल को हम
किसी तरह भा जाए और उनके घर में हमें थोड़ी जगह मिल जाए. किन्तु जैसे ही पाठक जी को
हमारे वहाँ होने की खबर मिली उन्होंने हम सबके कान पकड़ के बाहर कर दिया.”
“हाँ, ये तो हमें पता है.”
आलोचक कुमार गंभीर मुद्रा में बोले, “प्रेमकहानी, सभी उंगलियाँ तुम्हारी तरफ उठ
रही है. तुम्हारा ही पाठक जी से सबसे अधिक मेल-जोल रहा है. तुम अपनी सफाई में क्या
कहोगी?”
प्रेमकहानी सुबकते हुए
बोली, “मैंने कुछ नहीं किया. मुझे तो पाठक जी से परीकथा ने मिलवाया था. वह तो
मुझसे भी ज्यादा पाठक जी के करीब थी.”
परीकथा पंचायत में नहीं आई
थी. आलोचक कुमार ने परीकथा को बुलाने के आदेश दिया. जवाब मिला – परीकथा नहीं आ
सकती.
क्यों?
वह अत्यंत नाज़ुक है. धूप
में निकली तो फफोले पड़ जायेंगे.
तय हुआ कि परीकथा के घर
जाकर ही उसका बयान लिया जाए.
पंचायत परीकथा के घर
पहुंची. उसके घर के बाहर एक ध्वनि परीक्षा यंत्र लगा था.
क्यों?
परीकथा अत्यंत नाज़ुक है.
तेज़ आवाज़ से उसके कान के परदे फट जायेंगे. जो व्यक्ति इस ध्वनि परीक्षा यंत्र द्वारा
सफल किये जायेंगे वही परीकथा से बात कर पायेंगे.
पूरी पंचायत में केवल
प्रेमकहानी और हास्यकथा महोदय सफल हुए. वे दोनों घर के अन्दर चले. अन्दर हीरे के
मोटे मोटे सात परदे लगे थे.
क्यों?
परीकथा अत्यंत नाजुक है.
तेज़ नज़रों से उसकी दूध जैसी गोरी त्वचा काली पड़ जायेगी इसलिए इन परदों से ही बात
करनी होगी. परीकथा को कोई देख नहीं सकता.
हास्यकथा महोदय ने पुछा, “पाठक
जी गायब क्यों हुए?”
कोई जवाब नहीं.
प्रेमकहानी गिड़गिड़ाई, “बता
दे बहन. मुझपर इलज़ाम लगा है.”
कोई जवाब नहीं.
तभी परीकथा की सेवा में लगी
सात नौकरानियों में से एक ने हास्यकथा महोदय से एक सुराही जैसी चीज़ में कान लगाने
का इशारा किया.
क्यों?
परीकथा की आवाज़ इतनी नाज़ुक
है कि वह केवल इस सुराही से ही सुनी जा सकती है.
परीकथा बोल रही थी, “पाठक जी
लापता नहीं हुए है. आप सबके बीच ही है. ढूंढ लीजिये.”
बस वक़्त ख़तम हो गया था. नौकरानियो
ने हास्यकथा और प्रेमकहानी को घर के बाहर कर दिया.
फुसफुसाहटे बढ़ रही थी.
इलज़ाम पर इलजाम लग रहे थे. जासूसी कहानी चिल्लाई, “मुझे पक्का यकीन है कि चलचित्र
ने पाठक जी का अपहरण कर लिया है और दर्शक के भेष में उन्हें बंदी बनाकर रखा है.”
आलोचक कुमार फिर बिगड़े, “होश
में रहो. पाठक जी का ख्याल रखना कथानगर का फ़र्ज़ है. उनके साथ जो भी हुआ है कथानगर की
गलती से हुआ है. पाठक जी जहाँ भी हो जिस वेश में भी हो. उन्हें ढूंढना ही होगा...”
नतीजा सिफर था. सबके सब सर
धुन रहे थे. पाठक जी को आखिर ढूंढें तो ढूंढें कहाँ..??
कहानी लिखे जाने तक पाठक जी
का कोई पता नहीं चल पाया है और कथानगर में आरोप प्रत्यारोप का दौर जारी है...
© स्नेहा राहुल चौधरी
भारतीय नववर्ष की हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार 22-03-2015 को चर्चा मंच "करूँ तेरा आह्वान " (चर्चा - 1925) पर भी होगी!
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद सर :)
Deleteसहीं लिखा हैं आपने पाठक आजकल लापता ही हैं................ हाँ गलती पाठक की नहीं हैं साहित्यकारों की हैं
ReplyDeletehttp://savanxxx.blogspot.in
धन्यवाद सावन जी
Deleteलेखन के अनुभव बहुत सुंदरता से दिखाएँ है आपने सहीं लिखा हैं आपने ......स्नेहा जी
ReplyDeleteधन्यवाद संजय जी :)
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