Monday, September 1, 2014

चाँद की गुस्ताखी... शरारत चांदनी की...

अलसाया सा सूरज क्षितिज में खो गया 
कह के शब्बाखैर गुलमोहर भी सो गया
छिपते छिपाते मगर ‘कुछ’ कोने में भाग रहे है
जो सोये वो सोये मगर कुछ अब जाग रहे है 
ये रातरानी की अठखेलियों की घडी है 
करके नज़रें नीची रजनीगंधा हंस पड़ी है 
सुनने बैठे है सब एक दास्ताँ चाहत की
ये चाँद की है गुस्ताखी और शरारत चांदनी की...

पतंगों की हिदायत कि हर बात दायरे में हो
जुगनुओं की ज़िद कि बयान-ए-किस्सा मुशायरे में हो
लेकर करताल झींगुर शुरुआत करने पर तुले है
पत्तियों से लेकर सितारों तक के कान खुले है
दरी बिछाने को मेघों ने भेज दी है फुहारें
लकदक सी लहकती, उछलती, आई, बैठी बहारें
सुना है बड़ी ही अनोखी है ये कहानी मुहब्बत की
ये चाँद की है गुस्ताखी और शरारत चांदनी की...

फूल में बंद भँवरे की अब मिन्नतें कौन सुने
है बड़ी परेशानी कि ये किस्सा अब कौन बुने
भवें चढ़ाएं जाने क्यों कनेर अब खड़ी है
जाने किसके सर पे लगी हरसिंगार की छड़ी है
ठुनकती हुई जवाकुसुम भी देखो ज़िद पे अड़ी है
है बड़ी परेशानी ये फैसले की घड़ी है
पहले कौन बताये कब थी घड़ी नजाकत की
ये चाँद की है गुस्ताखी और शरारत चांदनी की...

गोरैया की बोली से भोर की दस्तक भी अभी हुई
अगली रात तक के लिए महफ़िल भी मुल्तवी हुई
समेट ली रजनीगंधा ने भी अपनी सारी पंखुड़ियां
उनींदी होकर गिर पड़ी अमलतास की पीली अन्कुरियाँ
है कैसा ये अनोखा किस्सा जिसके लिए सब लड़ पड़े है
नींद में भी सुनने को बेकल है सब कतारों में खड़े है
होगी नहीं कही भी कोई ऐसी चाहत खुबसूरत सी
जब चाँद ने की थी गुस्ताखी और शरारत चांदनी ने की...

- स्नेहा गुप्ता [26/05/2014, 09:30PM]