Friday, July 27, 2012

My latest novel "The Untrodden Ways"

So friends, here is the trailer of my novel 'THE UNTRODDEN WAYS'.
Don't forget to leave your comment...


The Untrodden Ways 

Thursday, June 7, 2012

लाइफ-पार्टनर

आयुष अस्पताल से घर लौटकर अपने कमरे में दाखिल ही हुआ था कि उसे अक्षिता लैपटॉप खोले मिल गयी.

"क्या कर रही हो, अक्कू?" उसने मुस्कुरा कर उसके सर पे हलकी थपकी देते हुए पूछा.

"भैया, आपने मुझे अपनी गर्लफ्रेंड के बारे में नहीं बताया?" अक्षिता ने झटके से घूम कर उससे सीधा सवाल दाग दिया.

आयुष घबरा गया. उफ़! फिर नयी मुसीबत. अब अच्छा खासा वक़्त लगना था उसे अक्षिता को ये समझाने में कि उसकी कोई गर्लफ्रेंड नहीं है. लेकिन अक्षिता का क्या! उसे तो आयुष के परिचितों में शामिल हर लड़की उसकी गर्लफ्रेंड ही लगती थी. और उसे ही क्यों? माँ और पापा का भी तो यही हाल था. घर में सभी यह जानने के लिए बेताब थे आयुष किस लड़की को पसंद करता है. दर असल यह बेताबी उसकी शादी को लेकर थी. और सबसे ज्यादा उत्साहित आयुष की छोटी बहन अक्षिता ही थी. वह जासूस की तरह आयुष पर नज़र रखती थी. भैया ने किस लड़की से बात की. कौन सी लड़की के साथ हँसे. किससे सबसे ज्यादा दोस्ती है इत्यादि की खबर अक्षिता हमेशा रखती थी. उसकी जासूसी से आयुष का लैपटॉप और मोबाइल तक नहीं बचा. किस लड़की ने भैया को मेल भेजा. किसका मेसेज आया... हर बात की खबर अक्षिता को थी. इसी तरह कुछ दिन पहले वो करुणा के पीछे पड़ गयी थी. आयुष ने बड़ी मशक्कत के बाद उसे समझाया था करुणा केवल दोस्त है.

और आज फिर से....

"कौन है मेरी गर्लफ्रेंड?" आयुष ने जूते उतारते हुए उससे पूछा.

"सारिका," अक्षिता ने आयुष का मेल खोल रखा था और लैपटॉप पर उंगलियाँ फिराते हुए बोली, "आपका पूरा मेल बॉक्स उसी के मेल से भरा हुआ है."

"अरे, वो दोस्त है मेरी." आयुष हँसते हुए बोला.

"बाप रे!" अक्षिता ने हैरानी जताते हुए कहा, "सिर्फ दोस्त है और इतने सारे मेल भेजती है! आपको मेल भेजने के अलावा उसके पास और कोई काम नहीं है क्या?"

"अक्कू, वो इवेंट मेनेजर है. लखनऊ में उसकी अपनी कंपनी है."आयुष ने बताया उसे.

"अच्छा?" अक्षिता हैरान हो गयी, "और फिर भी इतना वक़्त निकाल लेती है आपको मेल करने के लिए...!"

आयुष समझ गया कि अक्षिता इतनी ज़ल्दी पीछा छोड़ने वाली नहीं थी. उसकी बात का जवाब दिए बिना उसने थोड़ी ऊँची आवाज़ में कहा, "अरे, कोई है घर में मुझे चाय पानी पूछने के लिए? दिन भर का थका हारा काम से लौटा और पूछताछ शुरू हो गयी. किसी को कोई फ़िक्र है?"

"हाँ हाँ लाती हु." अक्षिता उठते हुए बोली, "इसमें इतना भाव खाने कि कौन सी बात है. लेकिन आपने कभी बताया नहीं सारिका के बारे में."

"अरे मेरी अम्मा. ज़रूर बताऊंगा पहले ज़रा सांस तो ले लेने दो. आज दो दो सर्जरी केस आ गए थे." आयुष बोला और हाथ मुह धोने चला गया.

अक्षिता किचेन में गयी आयुष के लिए चाय बनाने. माँ आ गयी तभी.

"कुछ बताया उसने सारिका के बारे में?" उन्होंने पूछा. मतलब उन्हें भी खबर हो चुकी थी.

"हाँ," अक्षिता ने कहा, "इवेंट मैनेजर है. लखनऊ में अपनी कंपनी है."

"अरे वाह!" माँ खुश हो गयी.

"और जाती हूँ पूछने." अक्षिता चहक कर दो कप चाय उठाये आयुष के कमरे में चली गयी.

आयुष ने मेल खोल रखा था. सारिका के ही मेल्स देख रहा था. उसने अपने शहर की कुछ तस्वीरे भेजी थी. अक्षिता आई.

"और बताइये न भैया. सारिका के बारे में." चाय थमाते हुए वह बोली.
आयुष ने मुस्कुरा कर अपनी बहन को देखा. वह जानता था कि सबसे ज्यादा शौक अक्षिता को ही है. नामालूम उसने कितनी बार हर परिचित से 'भैया कि शादी में ये करुँगी. भैया कि शादी में वो करुँगी.' कहकर अपने सारी योजनाओं को दोहराया होगा. लेकिन आयुष भी क्या करे! कोई लड़की पसंद भी तो आनी चाहिए.

आयुष ने चाय के कुछ घूँट भरे और कहना शुरू किया, "पिछली बार जब दिल्ली गया था तब सारिका से मुलाक़ात हुई थी. वह वहाँ अपने स्टाफ को घुमाने लायी थी. लालकिले पर हम दोनों के ही ट्रूप मिले. वह अपने साथियो को लालकिले से जुडी कहानियां और घटनाएं बता रही थी. मैं उसे गाईड समझ बैठा. यहाँ तक कि उसे ऑफर भी कर दिया पूरे ट्रिप का. वह खिलखिलाकर हंसी. और इस तरह हमारी दोस्ती हुई. मैंने उसका नंबर और ईमेल ले लिए और उसने मेरा. बस तभी से हम कॉन्टेक्ट में है."

"अच्छा, तो मतलब उसे भी इतिहास और ऐतिहासिक चीजों में दिलचस्पी है आपकी तरह?" अक्षिता ने ख़ुशी से कहा.

"हाँ," आयुष ने शांत सा जवाब दिया, "इसीलिए तो दोस्ती हुई."

"फिर तो बहुत अच्छा है भैया. आप दोनों की पसंद भी मिलती है." अक्षिता अपनी ख़ुशी छिपा नहीं पायी.

"तुम भी बिलकुल पागलो जैसी बात करती हो, अक्कू. कहाँ जयपुर और कहाँ लखनऊ! और मैं आज तक उससे सिर्फ एक ही बार मिला हूँ. और ऐसा कैसे हो सकता है?"

"क्यों नहीं हो सकता?" अक्षिता ने जवाबी सवाल दागा, "यहाँ तो बिना देखे ही शादियाँ हो जाती है और आप तो मिल भी चुके है एक बार."

"सिर्फ एक बार." आयुष दृढ़ता से बोला.

"तो कह दो कि आपको सारिका पसंद नहीं. फिर मैं नहीं बोलूंगी कभी कुछ भी." अक्षिता ने ज़रा सी नाराजगी जताई.

"अरे, ऐसा नहीं है अक्कू. सारिका बहुत अच्छी लड़की है. लेकिन मैं तो सिर्फ एक ही बार मिला हूँ उससे. और ये सब! फिर मेरे दोस्त क्या कहेंगे?"

"भाभी से पूछकर दोस्त चुनोगे कभी?" अक्षिता ने पूछा.

"बिलकुल नहीं.' आयुष ने स्वाभिमान से जवाब दिया.

"तो फिर दोस्तों से पूछकर भाभी चुनने का क्या तुक?"

आयुष ने स्तब्धता से अक्षिता को देखा. सही तो कह रही थी वो. ज़िन्दगी उसकी अपनी है. लड़की उसे पसंद होनी चाहिए. अब कैसे पसंद आये कहा पसंद आये इससे दोस्तों को क्या मतलब?

आयुष से कुछ कहते नहीं बना. लेकिन अक्षिता ने बात जारी रखी, "ऐसा कैसे होगा. कैसे होगा सोचने लगे तो फिर कभी नहीं होगा. फिर माँ पापा को अपनी पसंद की ही किसी लड़की से आपकी शादी कर देनी होगी. फिर आप किसी दिन फुर्सत में बैठ कर सोचोगे कि काश सारिका को प्रोपोज किया होता तो क्या बात होती!"

आयुष को नहीं मालुम था की अक्षिता इस हद तक उत्साहित है. वह उससे कुछ कहना ही चाहता था कि माँ ने उसे बुलाया और वह चली गयी... आयुष को अपने विचारों में छोड़कर....

रात का खाना खाने के बाद जब आयुष लेटा तो भी अक्षिता की बाते ही उसके दिमाग में घूम रही थी. सारिका सचमुच बहुत अच्छी लगती थी उसे. आत्मनिर्भर लड़की थी. और उसके उम्र की कम लडकियों को वह जानता जिन्होंने अपनी खुद की कंपनी खोल रखी हो. वैसे अच्छी तो उसे करुणा भी लगती थी. दोनों जुदा थी एक दुसरे से. हालांकि हंसमुख दोनों ही थी. लेकिन एक फर्क था. सारिका की बातो में आयुष को परिपक्वता नज़र आती थी. कैसे भी हालात हो वह रास्ता निकाल लेती थी. सबको साथ लेकर चलने कि आदत थी उसकी. और अपने स्टाफ के ४० सदस्यों को संभाल लेना अपने आप में एक बड़ी बात थी. इसके विपरीत करुणा का मुश्किल हालातो से कभी सामना नहीं हुआ था. वह तो हँसते खेलते डॉक्टर बन गयी थी. वैसे तेज़ वह भी बहुत थी. आयुष ने जब दोनों लडकियों कि तुलना की तो उसे लगा कि सारिका जहां बिना किसी सहारे के बल्कि दुसरो को सहारा देते हुए अपना जीवन जीने में सक्षम थी वही करुणा की ज़िन्दगी में एक ऐसा शख्स चाहिए था जो उसे संभाल सके.

निस्संदेह, आयुष सारिका को ही ज्यादा पसंद करता था. उसे पूरा यकीन था कि यदि कुछ विपरीत हालात सामने आ भी गए तो सारिका घबराने के बजाये कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेगी. और एक बार बात करके देखने में हर्ज़ ही क्या था.

लेकिन किस बहाने से फ़ोन करे. दरअसल आयुष उससे मिल कर आमने सामने बात करना चाहता था. ऐसे कई मौके मिले थे उसे सारिका से मिलने के लेकिन उसने ध्यान नहीं दिया. खुद  सारिका ने उसे निमंत्रण भी दिया था अपनी छुट्टियों में शामिल होने का. वह साल में दो बार अपने स्टाफ के साथ छुट्टियां मनाती थी. लेकिन आयुष कुछ काम की अधिकता की वज़ह से और कुछ झिझक से नहीं जा पाया था. लेकिन आज उसे झिझक नहीं हो रही थी. बल्कि एक किस्म की चाहत सी हो गयी थी सारिका से मिलने की.

कहते है कि जब किसी चीज़ की सच्चे दिल से चाहत करो तो वह ज़रूर मिलती है. तीसरे दिन सारिका का मेसेज आया - 'फ्री होगे तो मेसेज करना.'


आयुष ने मेसेज नहीं किया. उसने कॉल किया, "हेल्लो सारिका."


"हेल्लो आयुष, एक शादी का कांट्रेक्ट मिला है आगरा में. अप्पर मिडिल क्लास फैमिली है. लम्बा प्रोग्राम है. देखो अगर आ सको तो तुम्हे आगरा घुमाउंगी."


अंधा क्या मांगे दो आँखे! आयुष छूटते ही बोला, "हाँ हाँ क्यों नहीं. ज़रूर आउंगा."


"सच? मैं इंतज़ार करुँगी." सारिका ने ख़ुशी से कहा.


"हाँ बाबा. लेकिन मेहमाननवाजी में कोई कमी नहीं होनी चाहिए."


सारिका खिलखिला कर हंस पड़ी, "जी डॉक्टर साहब, कोई कमी नहीं होगी. आप आइये तो सही. मैं एड्रेस मेसेज कर रही हु."

आगरा स्टेशन पर सारिका खुद आई थी आयुष को लेने. आयुष ने उसे देखते ही पहचान लिया. तस्वीर से ज्यादा अच्छी वह हकीकत में लगती थी.


"वेलकम टू आगरा डॉक्टर आयुष चौहान." उसने काफी जिंदादिली से हाथ मिलाया आयुष से.


"थैंक यू वैरी मच मिस सारिका वर्मा." आयुष भी उतनी ही गर्मजोशी से मिला सारिका से.

पूरी शादी में सारिका व्यस्त रही. लेकिन क्या मजाल जो एक पल को भी आयुष ने यह महसूस किया हो कि सारिका उसे वक़्त नहीं दे पा रही है. पूरे समय सारिका उसे अपने पास ही रखती थी. जो जो इंतज़ाम वह करती आयुष को बताती जाती. फूलवाले के यहाँ भी वह आयुष के साथ ही गयी. होटल का सारा इंतज़ाम देखने के लिए भी वह आयुष को साथ ले गयी. आयुष उस शादी में किसी को भी नहीं पहचानता था. लेकिन एक पल को भी उसे अजनबी जैसा एहसास नहीं होने दिया सारिका ने. पहले सारिका की जिन बातो की आयुष तारीफ़ भर करता था अब वही उसे सम्मोहित करने लगी थी.

शादी अच्छे से संपन्न हो गयी. और वादे के अनुसार अगले दिन सारिका आयुष को आगरा घुमाने ले गयी. पहले उन्होंने आगरे का किला देखा फिर ताजमहल देखने चले.
"प्रेम की अद्भुत निशानी." आयुष ने ताजमहल को देखकर कहा.

"तुम्हे यह प्रेम की निशानी लगती है?" सारिका ने पूछा.

"हाँ," आयुष ने जवाब दिया.

"मुझे तो यह आडम्बर लगता है."


"आडम्बर कैसे?" आयुष ने पूछा.

"आडम्बर नहीं तो क्या?" सारिका ने रुखाई से कहा, "दिखावा है दुनिया के सामने कि मुमताज़ को प्यार करता था. सच्चे प्यार को दिखावे कि ज़रूरत नहीं होती."

"दिखावा नहीं है." आयुष ने कहा, "शाहज़हां मुमताज़ को बहुत चाहता था इसलिए उसकी याद में ये ताजमहल बनवाया."

"कितना चाहता था?" सारिका ने पूछा, "तुम्हे मालुम भी है?" उसकी आवाज़ में व्यंग्य था, "कौन जानता है कि वह मुमताज़ पर अत्याचार करता हो. क्यूंकि उसने पैसे का सहारा लेकर ताजमहल बनवा दिया मतलब सच्चा प्रेमी हो गया? मतलब जो ताजमहल नहीं बनवाते वो प्रेम नहीं करते?"

"ऐसी बात नहीं है." आयुष ने उसे समझाने कि कोशिश की, "उसके पास इतनी दौलत थी इसलिए उसने बनवाया. इसका ये मतलब थोड़ी न हुआ की जिनके पास दौलत नहीं वो सच्चा प्यार नहीं करते. लेकिन अगर कुछ लोग दौलत का सहारा अपना प्यार जताने के लिए ले लेते है तो इसमें गलत क्या है?"

"दौलत दिखावे के लिए ज़रूरी होती है प्यार जताने के लिए नहीं." सारिका ने दृढ़ता से कहा.

"मैं तुमसे सहमत नहीं हु." आयुष ने भी उसी दृढ़ता से जवाब दिया.

सारिका अचानक से हँसते हुए बोली, "ये तो अच्छी लड़ाई हो गयी"

"हा हा" आयुष भी हँसा, "चलो अच्छा है किसी बात पर तो हम असहमत होते है."

"हाँ, लड़ने के भी कुछ बहाने होने चाहिए." सारिका जोर से हसी, "वैसे तो हम हर बात पर सहमत ही हो जाया करते है."

आयुष ने उसे हँसते हुए देखा लेकिन कुछ बोला नहीं. अब तक वो आगरा की सडको पर पहुँच चुके थे. दोनों पैदल चल रहे थे. मौसम भी अच्छा था.
कुछ देर चुप रहने के बाद आयुष बोला, "हम हर बात पर सहमत इसलिए होते है क्यूंकि हमारी पसंद लगभग एक जैसी है. हम दोनों को ही इतिहास और ऐतिहासिक  चीज़े पसंद है."

सारिका ने हंसकर सहमति जताई. दोनों घुमते रहे. काफी देर तक... पैदल आगरा की सडको पर....

दिन कैसे बीता आयुष को पता ही नहीं चला. दोनों लौट आये थे. आयुष सोचता रहा सारिका के ही बारे में. कितनी सहज थी वो. कोई बनावटीपन नहीं. आयुष ने सोचा कि उसने उसके बार में पहले क्यों नहीं सोचा और रात भर वो यही सोच सोच कर मुस्कुराता रहा.

शादी हो चुकी थी और लड़की की विदाई भी. सारिका और आयुष के चलने का भी वक़्त आ गया था. आयुष वापस जयपुर और सारिका वापस लखनऊ. दोनों अलग हो रहे थे. सारिका और आयुष दोनों ही स्टेशन पर पहुंचे. सारिका की ट्रेन आधे घंटे बाद आने वाली थी. आयुष की ट्रेन स्टेशन पर लग चुकी थी.

"अच्छा सारिका," आयुष ने कहा, "चलता हूँ. फिर मिलेंगे." उसने कहा हालाँकि  इच्छा तो थी मिलते रहेंगे कहने की. लेकिन बोला नहीं कुछ. कई बार इच्छा हुई की प्रोपोज  कर दे लेकिन कर नहीं पाया वह.


आयुष गाडी में चढ़ चुका था. वह जब अपनी सीट पर बैठा तो उसने खिड़की से देखा. सारिका उसी दिशा में देख रही थी लेकिन शायद वह आयुष को देख नहीं पा रही थी. आयुष ने उसका ध्यान आकर्षित करने की कोशिश नहीं की. वह बस मुस्कुराता हुआ देखता रहा सारिका को...

आयुष लौट तो आया था लेकिन उसका दिल वही रह गया था आगरा में या फिर शायद किसी के दुपट्टे से बंधकर अब तक लखनऊ भी पहुँच चुका था. वह सोचता रहता सारिका के ही बारे में. और सोच सोच कर मुस्कुराता रहता.


"भैया, ऐसे मुस्कुराने से भाभी थोड़ी न मिल जायेंगी. बात तो करो पहले. वरना आप मुस्कुराते रह जाओगे और वो अपनी शादी का  निमंत्रण भेज देंगी."


आयुष घबरा कर उठा. उसने अक्षिता को घूरा, "भागो यहाँ से तुम." उसने झिड़का भी उसे लेकिन फिर खुद ही हस पड़ा.


अक्षिता ने सही बात कही थी. बात करना ज़रूरी था. अगले दिन उसने सारिका को फ़ोन लगाया.


"हेल्लो सारिका."


"हेल्लो आयुष, कैसे हो?" सारिका की जानी पहचानी आवाज़.


"बिज़ी हो?" उसने पूछा, "कुछ बात करनी थी."


"आयुष मैं तुम्हे फ़ोन करती हु." सारिका ने थोडा सोचकर कहा.


"ठीक है ठीक है." आयुष ने जल्दबाजी से कहा और फ़ोन काट दिया.
तीन दिन बाद सारिका का फ़ोन आया.


"हेल्लो आयुष. माफ़ करना, एक बर्थडे पार्टी का कॉन्ट्रेक्ट मिल गया था."


"अरे, कोई बात नहीं." आयुष ने कहा फिर अपनी आवाज़ को शांत और संयत रखने का प्रयास किया.


"कुछ कहना था तुम्हे? बोलो." सारिका ने कहा.


"हाँ सारिका." आयुष ने महसूस किया उसकी धड़कन तेज़ हो गयी थी, "मैं तुम्हे बहुत पसंद करता हु. क्या तुम मेरी लाइफ पार्टनर बनोगी?" एक झटके में कह दिया आयुष ने.


"ये कैसा मज़ाक है, आयुष?" सारिक की आवाज़ में परेशानी झलक रही थी.


"मज़ाक नहीं सारिका." आयुष ने खुद को संभालते हुए कहा, "मैं सच कह रहा हु. मैं तुम्हे पसंद करता हु हमेशा से ही. मैं अक्सर सोचता था की अगर तुम्हारे जैसी लाइफ पार्टनर मिल जाए तो कितना अच्छा रहे. फिर ख्याल आया की तुम्हारे जैसी क्यों, तुम ही क्यों नहीं. तुम ही मेरी लाइफ पार्टनर बन जाओ तो कितना अच्छा रहे..."

"लेकिन तुम तो मुझे ठीक से जानते भी नहीं." सारिका सचमुच परेशान थी.


"जानता हु. अच्छी तरह जानता हु." अब आयुष में आत्मविश्वास आ गया था, "तुम बहुत अच्छी लड़की हो. तुम्हारे अन्दर बनावटीपन नहीं है. तुम बहुत सहज हो. और जानने के लिए तो सारी उम्र पड़ी है."


"लेकिन हमारी लाइफ स्टाइल बिलकुल अलग है. हमारा रहन सहन. हमारा पहनावा ओढावा. सब कुछ अलग." अब सारिका की आवाज़ में पहले जैसी तल्खी नहीं थी. आयुष ने यह बात गौर भी की.


"तो क्या हुआ अगर अलग है तो. थोडा तुम एडजस्ट कर लेना थोडा मैं एडजस्ट कर लूंगा." आयुष ने उत्साहित होकर कहा.

"लेकिन तुम्हारी फैमिली?" सारिका हर पहलु पर गौर कर रही थी.

"तुम सबको बहुत पसंद हो." आयुष ने उत्साहित होकर कहा.

"मुझे बहुत अजीब लग रहा है."

"कुछ अजीब नहीं. तुम सिर्फ इतना बताओ कि मैं तुम्हे पसंद हु या नहीं?" आयुष ने अधीरता से पूछा.

"तुम्हारे जैसा लाइफ पार्टनर मिलना एक लड़की के लिए खुशनसीबी ही होगी."

"बस अब और क्या चाहिए." आयुष ख़ुशी से फूला नहीं समाया.

"लेकिन आयुष," सारिका घबरा कर बोली, "मेरा मन बहुत विचलित हो गया है. पता नहीं क्या होगा कैसे होगा."

"सब हो जाएगा. तुम बिलकुल चिंता मत  करो. मैं आ रहा हु लखनऊ तुमसे मिलने." आयुष का मन ख़ुशी से नाच रहा था.


फ़ोन कट गया. आयुष ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि सारिका ने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया था.


रात को आयुष ने औपचारिक रूप से अपने माता पिता के सामने सारिका की बात रखी. वे लोग तो बस इसी का इंतज़ार कर रहे थे. उन्होंने सहर्ष स्वीकृति दे दी. अगले दिन आयुष लखनऊ जाने के लिए घर से निकला. अक्षिता ने उसे बेस्ट ऑफ़ लक कहा.

सारिका के घर का पता था आयुष के पास. जब वह उसके घर पहुंचा तो थोडा सा घबराया हुआ भी था. उसने घंत्री बजाई तो एक प्रौढ़ महिला ने दरवाज़ा खोला.


"नमस्ते." आयुष ने हाथ जोड़कर कहा, "क्या आप सारिका की माँ है?"


"जी. आप कौन?"


"मैं आयुष."


"अरे, आयुष बेटा. आओ आओ अन्दर आओ." सारिका की माँ ने ख़ुशी से आयुष को अन्दर बुलाया, "सारिका ने बताया था आपके बारे में."


"अच्छा?" आयुष ने ख़ुशी से पूछा, "क्या बताया था?"


"यही की आप दोनों दोस्त है." सारिका की माँ आयुष को बैठक में लाते हुए बोली, "सारिका तो है नहीं घर पे. मैं उसे फ़ोन कर देती हूँ. आप यहाँ बैठो, मैं चाय लेकर आती हु."

सारिका की माँ चली गयी. उनकी बातो से आयुष समझ गया की सारिका ने उन्हें कुछ भी नहीं बताया था उसके प्रोपोजल के बारे में. वह अपने आस पास का निरिक्षण करने लगा. छोटा सा घर था लेकिन साफ़ सुथरा था. छोटे से कमरे में हर सामान करीने से रखा हुआ था. आयुष की नज़रे कमरे में घूम ही रही थी की सारिका के पिताजी कमरे में दाखिल हुए.


"नमस्ते." आयुष ने खड़े होकर अभिवादन किया.


"नमस्ते बेटा, बैठो. आप खड़े क्यों हो गए?" आयुष के पिताजी बैठते हुए बोले.


जवाब में आयुष मुस्कुराते हुए बैठ गया.


"क्या नाम है बेटा आपका?' सारिका के पिताजी ने पूछा.


"जी, आयुष चौहान." आयुष ने जवाब दिया.


"कहा से हो आप?' उन्होंने फिर पूछा.


"जी, जयपुर से."


"करते क्या हो आप जयपुर में?"


"जी, मैं कार्डियोलोजिस्ट हूँ."


"अच्छा तो आप डॉक्टर हो!" सारिका के पिताजी हँसते हुए बोले. आयुष भी मुस्कुराया.

अभी बाते चल ही रही थी कि उधर से सारिका और इधर से सारिका की माँ चाय लेकर आ गयीं. सारिका ने जैसे ही आयुष को देखा, वो खुश भी हुई और परेशान भी. बगैर बातचीत में शामिल हुए, वो एक कोने में जाकर सर झुका कर खड़ी हो गयी. लेकिन उसके चेहरे पर उभर आई परेशानी आयुष से छुपी नहीं रही. उसने वक़्त नहीं खोया अब ज्यादा.


"अंकल, मैं आपकी बेटी से शादी करना चाहता हूँ."


आयुष का इतना कहना था कि कमरे में सन्नाटा छा गया. जैसे मुर्दानगी  छा गयी हो.


कुछ देर बाद, सारिका के पिताजी बोले, "हमारे यहाँ गैर-बिरादरी में शादी नहीं होती." उनकी वाणी में पहले जैसी मधुरता नहीं रही थी. हालाँकि सारिका की माँ चुप रही.


"अंकल, आज के ज़माने में भी आप ऐसा बातो को मानते है?" अब आयुष को समझ में आ गया था कि उसके प्रोपोज करने पर सारिका परेशान क्यों हो गयी थी.


"ज़माने बदलते है. परम्पराएं नहीं बदलती." सारिका के पिताजी दृढ़ स्वर में बोले.


"भले ही उसके लिए आपको अपनी बेटी की खुशियों कि बलि क्यों न चढ़ानी पड़े?" आयुष भी दृढ़  स्वर में बोला. वह कुछ सोचकर ही लखनऊ आया था.


आयुष का इतना बोलना था कि सारिका के पिता ने अपनी बेटी को खा जाने वाली नजरो से घूरा. सारिका पहले से ही सर झुकाए खड़ी थी.


"सारिका ने कुछ नहीं किया." आयुष बोला, "मैं सारिका को पसंद करता हूँ, इसलिए उसे आप लोगो से माँगने चला आया. लेकिन मैं नहीं जानता था कि आप लोग इतने ढकोसलापंथी है." आयुष का स्वर तेज़ हो गया था. वह उठ खड़ा हुआ, "मुझे तरस आता है ये सोचकर कि इतनी काबिल लड़की के माता पिता ऐसी सोच रखते है..." वह चलने को हुआ कि तभी उसकी नज़र सारिका पर पड़ी... वह उसे ही देखा रही थी... अपनी डबडबाई आँखों से.... आयुष समझ गया कि उसे आंसू छलकाने कि भी इजाज़त नहीं थी.... उसका दिल भर आया लेकिन वह रुका नहीं.... दनदनाता हुआ बाहर निकल गया....

आयुष लौट तो आया था लेकिन उसका चैन वही लखनऊ में छूट गया था. सर में हमेशा दर्द रहने लगा था और नींद भी आनी कम हो गयी थी. जब से वह लौटा था तब से उसने सारिका से बात भी नहीं की थी और न ही सारिका ने उसे फ़ोन किया था. पर उसे सारिका की बेहद चिंता हो रही थी. न जाने बिरादरी के नाम पर क्या 
सलूक
करे उसके माता पिता उसके साथ.

सारिका बस खामोश थी. घर में किसी ने कुछ कहा तो नहीं था उससे लेकिन पिताजी का गुस्सा छुपा नहीं रहा था. वह भी चुप थी. बस रात को चुपके से रो लेती थी. माँ से यह बात छुपी नहीं की सारिका अन्दर ही अन्दर घुट रही थी. सारिका बस किसी तरह वक़्त काट लेना चाहती थी. एक शादी का कॉन्ट्रेक्ट मिला और सारिका ने खुद को व्यस्त कर लिया. एक दोपहर को वह डेकोरेटर का हिसाब कर रही थी की माँ ने पूछा, "कहा मिली थी तुम आयुष से?"



सारिका के दुःख का गुबार फूट पड़ा, "आयुष जा चुका है माँ. और अब वह लौट कर नहीं आने वाला. और अब उसके बारे में पूछने का कोई मतलब नहीं है. तुम कुछ मत पूछो . तुम सिर्फ मुझे बता देना की किस बिरादरी वाले से शादी करनी है मुझे. बता देना क्यूंकि शादी के लिए फूलवाले से मैं खुद बात कर लुंगी. सारी व्यवस्था मैं खुद कर लुंगी. तुम्हे किसी बात की चिंता नहीं करनी है. लेकिन माँ, एक बात कभी मत पूछना." सारिका की आँखे भर आई थी, "मुझसे कभी मत पूछना की मैं खुश हु या नहीं..."


रात को जब पिताजी खाना खा रहे थे तो सारिका की माँ ने पूछा, "आयुष में क्या खराबी थी?"


"वह हमारी बिरादरी का नहीं है." पिताजी उसी आवाज़ में बोले.


"अच्छा?' सारिका की माँ व्यंग्य से बोली, "और हमारी बिरादरी का कोई डॉक्टर लड़का जयपुर से चला आता अपनी सारिका के लिए और हिम्मत से कर लेता खुद आपसे ही बात?"


पिताजी चुप रहे लेकिन मुह में निवाला ले जाता हुआ उनका हाथ रुक गया.
"बड़ा सीना चौड़ा कर के कहते है आप की मेरी बेटी है जब कभी सारिका की तारीफ़ होती है तो. जिस बेटी ने समाज में इतना नाम दिलाया है आपको आप उसकी चाह बिरादरी के नाम पर कुर्बान कर रहे है? जब आप बुद्धे हो जायेंगे तब क्या आपकी बिरादरी वाले आयेंगे आपकी देख भाल करने या बेटी देखेगी? तब किस मुह से आप बेटी से अपेक्षा करेंगे की वह आपकी देख-रेख करे जब आपने उसकी ख़ुशी बिरादरी के नाम को चढ़ा दी. तब अगर वह ये कह दे कि जाइए बिरादरी वालो से सेवा करवाइए तब आप क्या कहेंगे? वो लड़का भी तो बिरादरी के बाहर कि लड़की के लिए आया था. बिना माँ-बाप कि मर्ज़ी के तो नहीं आया होगा इतनी दूर. उसके माँ-बाप कैसे मान गए? वो मानते होंगे कि आज बेटे को देखेंगे तो कल बेटा हमको देखेगा. वो सब छोडिये.  आप जो लड़का ढूंढेंगे सारिका के लिए क्या वो उतनी तकलीफ उठाएगा जितनी तकलीफे उठाकर आयुष जयपुर से यहाँ लखनऊ आया था. जिस तरह से आपने बे-इज्ज़त करके आयुष को निकाला, क्या आपका चुना हुआ लड़का इतनी बे-इज्ज़ती बर्दाश्त करेगा? मान लीजिये सारिका के लिए वर ढूँढने में धोखा खा गए तो? मानियेगा कभी अपनी गलती? साफ़ साफ़ कह दीजियेगा कि सारिका की ही किस्मत खराब है. आप क्या दोष दीजियेगा उसे. उसकी किस्मत तो इतनी तेज़ है कि एक लड़का खुद चल कर आ गया आपके पास आपकी बेटी का हाथ माँगने. जाते जाते वक़्त मैंने उसकी आँखों में अपनी सारिका के लिए मोह देखा. इतना जान लीजिये कि आप कितना ही अच्छा लड़का खोज लीजिये लेकिन आयुष 
जितना ख़याल और स्नेह कोई लड़का सारिका से नहीं करेगा. और बड़ा घमंड है आपको अपनी बिरादरी का तो यही बात कचहरी में कहिये तो जानू. सारिका बालिग़ है. आयुष के साथ कोर्ट मैरिज कर ली तो क्या कीजियेगा आप? लेकिन, मैं जानती हूँ कि मेरी बच्ची घुटती रहेगी लकिन ऐसा हरगिज़ नहीं करेगी. क्यूंकि अपने पिता से बहुत प्यार करती है. भले वो अपनी इकलौती बच्ची से प्यार करते हो या नहीं..."


सारिका के पिता चुपचाप सुन रहे थे. उनसे खाया नहीं जा रहा था. उन्हें शांत देखकर सारिका कि माँ उनके करीब आई और बोली, "देखिये तो, हमारे बच्चे कितने बड़े हो गए है! क्या अब हमें बड़े नहीं हो जाना चाहिए."

आयुष अपने कमरे में लेटा हुआ था. सरदर्द से राहत पाने के लिए उसने एक पट्टी बाँध ली थी सर पे. फिर भी कोई आराम नहीं था. अचानक अक्षिता आंधी तूफ़ान कि तरह
दौड़ती हुई आई... "भैया, भैया... भाभी का फ़ोन... भाभी का फ़ोन..."


उसकी तेज़ आवाज़ से आयुष कि तन्द्रा टूटी. उसने हडबडाकर फ़ोन लिया.


"हेल्लो?"


"हेल्लो आयुष. कहा थे तुम. एक भी मेल का जवाब नहीं दिया. कल से फ़ोन कर रही हु कभी स्विच ऑफ तो कभी कोई उठाता नहीं. अभी तुम्हारी बहन ने फ़ोन उठाया. कहा हो तुम अभी?' सारिका एक सांस में बोल गई.


"घर पे हूँ. क्यों?" आयुष ने हैरान होकर पूछा.


"बाबूजी तुमसे मिलने अस्पताल गए है."


"क्या??" आयुष उछल कर खड़ा हो गया, "क्या कह रही हो सारिका...?"


"सही कह रही हु. ज़ल्दी पहुँचो अस्पताल. बाबूजी पहुँच भी गए होंगे अभी तक. कल सुबह ही निकले थे घर से."


"ओह! तुमने पहले नहीं बताया."


"नहीं बताया." सारिका गुस्से बोली, "डॉक्टर साहब फुर्सत हो तो ज़रा अपना मेल और मेसेज चेक कर ले. कल से कॉन्टेक्ट करने के लिए परेशान हु और इनका शिगूफा कि मैंने बताया नहीं...."


"अच्छा, अच्छा, फ़ोन रखो, मैं तुमसे बाद में झगडा करता हूँ."

आयुष ने फ़ोन काटा और लपक कर बाथरूम की ओर बढ़ा. पहले जहाँ उसपर देवदास की सुस्ती और उदासी छाई थी, सारिका की आवाज़ सुनते ही युसेन बोल्ट की फुर्ती और ताजगी आ गयी. 
पांच मिनट में तैयार होकर वह अपनी गाडी की ओर बढ़ा. तब तक पूरे घर को मामले की सूचना देने का शुभ काम अक्षिता कर चुकी थी.

आयुष जैसे ही गाडी में बैठा, उसे बेहद सुकून का एहसास हुआ. उसने सारिका को फ़ोन किया.


"हेल्लो, पहुँच गए आयुष. इतनी ज़ल्दी?


"मैंने कहा था न की अगर सच्चे दिल से चाहे तो हम ज़रूर मिलेंगे.. वैसे सारिका, तुमने मेरे एक सवाल का जवाब नहीं दिया?"


"कौन सी बात का?"


"क्या तुम मेरी लाइफ-पार्टनर बनोगी?"


"मैं बाबूजी से पूछकर बताती हु." सारिका ने कहा और इसके साथ ही खिलखिलाकर हस पड़ी.


आयुष की हंसी भी उसके चेहरे पर खेलने लगी. फ़ोन काट कर उसने गाडी स्टार्ट की और अचानक उसकी कल्पना में खुद की और सारिका की एक तस्वीर उभर आई......







 

  - © स्नेहा राहुल चौधरी

Thursday, May 17, 2012

सुर्ख

पार्किंग में बाइक लगाकर अभि तेज़ कदमो से पार्क के अन्दर दाखिल हुआ. काफी चहल पहल थी हमेशा की तरह. कुछ आगे चलने पर उसे मान्या दिखाई दी वहीँ पीले गुलाब की झाड़ियो के पास वाली बेंच पर बैठी हुई. उसके हाथ में परिणीता थी. लेकिन वह पढ़ नहीं रही थी ये बात अभि भांप गया क्यूंकि उसकी निगाहें किताब के पन्नो पर नहीं बल्कि कही शून्य में थी. वह उसके पास पहुंचा.

"हेल्लो मान्या." उसने हमेशा की तरह उसे चौकाने के इरादे से अचानक कहा.
मान्या ने सर तो घुमाया पर उसे देखे बिना बेंच से उठकर पीले गुलाब वाली झाड़ियो के पास चली गयी.




अभि हैरान सा उसे देखने लगा. नाराज़ थी वह. लेकिन क्यों? किस बात से?
"क्या हुआ मान्या?" उसने पास जाकर उससे पूछा बिलकुल उसकी नज़र के सामने आते हुए ताकि इस बार वह नज़रे न फेर सके लेकिन मान्या ने फिर से नज़रे घुमा ली.
"आखिर बात क्या है?" अभि ने पूछा उससे. कोई जवाब नहीं. "देखो तो, आज मैंने नीली शर्ट पहनी है और कितना हैंडसम लग रहा हु और तुमने अभी तक तारीफ़ भी नहीं की मेरी." अभि को पूरा यकीन था की यह बात सुनते ही मान्या उसकी तरफ हंस कर देखेगी ज़रूर.


मान्या ने उसकी ओर देखा लेकिन हंस कर नहीं. यह क्या? बड़ी बड़ी आँखे बिलकुल लाल लाल. जैसे मान्या रो रही हो काफी देर से.

"क्या बात है मान्या?" अभि ने थोडा घबरा कर पूछा. उसने कभी मान्या को रोते हुए नहीं देखा था.
"तुमने सारिका से बात की?" मान्या ने भींगी हुई आवाज़ में पूछा.
"सारिका से? हाँ, उसे ही तो दी थी परिणीता तुम्हे दे  देने के लिए."
"क्यूँ?"
"क्यूँ का मतलब?" अभि ने हैरानी से पूछा, "तुम्हारे कॉलेज गया था. पता चला तुम आई नहीं थी. और पार्क में भी तुम नहीं आ रही थी कई दिनों से. इसलिए मैंने तुम्हारी दोस्त सारिका को परिणीता दे दी, तुम्हे देने लिए. और तुम तो जानती हो की लाइब्रेरी में परिणीता के लिए कितनी मारा मारी चलती है. कल ही यह किताब एक लड़के ने लौटाई. मेरी नज़र पड़ गयी और मैंने तुरंत इसको ले लिया. तुमने कहा था की तुम्हे परिणीता पढनी है. इसलिए तुम्हे देने कॉलेज चला गया. सारिका को यह सोच कर दे दी की तुम तो आई नहीं लेकिन छुट्टी में इसो पढ़ तो लोगी कम से कम."
"हाँ, मैं तो मर गयी थी न! फिर आती ही नहीं कभी." मान्या फफक कर रो पड़ी.

"ये क्या हो गया है मान्या तुम्हे?" अभि हैरान था. मान्या संतुलित स्वभाव की लड़की थी और उसका इस तरह से आपा खो देना अभि के लिए बहुत अचरज की बात थी.
"ऐसी क्या बात हो गयी की तुम मेरा इंतज़ार नहीं कर सके जो  सारिका को किताब दे दी." मान्या हिचकियों के बीच बोली.
"अच्छा, तो तुम्हे लगता है की मैं तुम्हारी दोस्त के साथ फ्लर्ट कर रहा था." अभि ने थोड़े गुस्से से कहा.
"नहीं," थोड़े शांत स्वर में मान्या बोली, "मैं जानती हु तुम फ्लर्ट नहीं हो. लेकिन मुझे ये समझ में नहीं आ रहा की हमारी दोस्ती में सारिका की ज़रूरत क्यों महसूस की तुमने."
"ऐसा  नहीं है, मान्या." अभि को अब समझ में आया. तो मान्या इस बात से नाराज़ थी की उसने सारिका से बात की, "मैं सिर्फ ये किताब तुम तक ज़ल्दी पहुचाना चाहता था. बस."
"ज़ल्दी?" मान्या का स्वर फिर तेज़ हो गया, "तुम बिजनेस टूर पर थे जब मुझे ग़ुलाम अली की बहारों का बांकपन मिली. तुम्हारे सभी दोस्त आते थे पार्क में, सौरभ, अनिकेत, वरुण सब आते थे. लेकिन मैंने पंद्रह दिनों तक तुम्हारे लौट आने का इंतज़ार किया.  तुम लौटे और मैंने  तुम्हारे हाथ  में दी वो कैसेट."
"अच्छा बाबा." अभि ने गहरी सांस लेकर कहा, "गलती  हो गयी. अब कोई भी बात होगी तो सिर्फ तुमसे कहूँगा. तुम्हारी दोस्तों से नहीं." अभि उसे मनाने की गरज से मुस्कुराया.
मान्या ने अपने आंसू पोंछे. कुछ देर चुप रही. फिर अभि की ओर देखकर मुस्कुराते हुए बोली, "हाँ, हैंडसम तो लग रहे हो."
"शुक्रिया मोहतरमा." अभि खुश हो गया. मान्या उसकी बहुत अच्छी दोस्त थी लेकिन फिर भी उस जैसी समझदार लड़की का इस तरह ज़रा सी बात पर उखड जाना उसके पल्ले नहीं पड़ रहा था.

मान्या अब शांत थी. अभि ने अच्छा मौका जानकार कहा, "देखो मान्या, यह कोई बड़ी बात नहीं है. बल्कि मेरा तो मानना है की हमारे  कॉमन फ्रेंड्स होने चाहिए. मान लो कभी ऐसा हो की हमारी तुम्हारी बात नहीं हो  पाए या हम मिल न पाए तो कॉमन फ्रेंड्स के ज़रिये हम एक दुसरे के कान्टेक्ट में रह सकते है."
"कान्टेक्ट में हम वैसे भी रह सकते है. फोन से, ईमेल से, मेसेज से. चाहो तो हज़ार तरीके है न चाहो तो हज़ार बहाने." मान्या का स्वर तेज़ होता जा रहा था.
"अरे, तुम समझी नहीं मान्या," अभि ने कोशिश की उसे समझाने की, "अब जैसे मेरे जितने भी दोस्त है वो सब आपस में भी दोस्त है. इससे  फ्रेंड्स सर्किल बनता है. दोस्ती और भी ज्यादा मजबूत होती है. मैं तो कहता
हूँ की उसी तरह तुम भी मेरे दोस्तों को जानो और मैं भी तुम्हारे दोस्तों को जानू. इससे हम एक दुसरे को और बेहतर  जान पायेंगे."
"अभि," मान्या की आवाज़ फिर से भींग गयी थी, "हम दो साल से दोस्त है. क्या मैंने तुम्हे कभी परेशान किया है? कभी कोई ग़लतफहमी रखी तुम्हे लेकर?"
"अरे नहीं कभी नहीं." अभि को लगा मान्या बात को दूसरी तरफ ले जा रही है लेकिन वह रोक नहीं पाया.
"कभी तुम्हे किसी और की ज़रूरत पड़ी मुझे कोई बात समझाने  के लिए?"
"नहीं, तुम तो वैसे ही बहुत सुलझी हुई लड़की हो." अभि खुद ही उलझा जा रहा था.
"तो फिर हमारे बीच कॉमन फ्रेंड्स क्यों होने चाहिए? तुम्हे मुझसे  बात करने के लिए किसी ज़रिये की ज़रूरत क्यों महसूस होती है. क्यों कोई कॉमन फ्रेंड  चाहिए तुम्हे? क्यों आये कोई तीसरा हमारे बीच???" मान्या की आँखें बरसाती नदी की तरह बहने लगी. उसके हाथ से परिणीता छूट कर नीचे गिर पड़ी. उसने अपनी रोती हुई आँखों  से एक नज़र भर कर अभि को देखा और पीले गुलाब वाली झाड़ियो से होते  हुए पार्क के दुसरे दरवाजे की ओर चली गयी. कुछ कदम तेज़ चलने के बाद वह आँखों से ओझल  हो गयी.

अभि उसे जाते हुए देखता रहा. उसने उसे रोका नहीं. आवाज़ भी नहीं दी.
"अभि, ये मान्या थी न?" मिश्रा अंकल बोले. मिश्रा अंकल भी अक्सर पार्क में आते थे. अभि और मान्या दोस्त है, वो जानते थे.
"हाँ." अभि ने कहा.
"क्या हुआ उसे? ऐसे क्यों चली गयी?" मिश्रा अंकल ने पूछा.
अभि ने कोई जवाब नहीं दिया.
वह अभी भी उस रास्ते को ही देख रहा था जहा से अभी कुछ देर पहले  मान्या रोती हुई गयी थी.
मिश्रा अंकल अचरज से उसे देख रहे थे.
"ये कौन से रंग के गुलाब है, अंकल?" अचानक अभि ने पूछा.
"पीले गुलाब है." मिश्रा अंकल ने हैरानी से जवाब दिया.
अभि के चेहरे पर भीनी सी मुस्कान तैर गयी, "मुझे तो सुर्ख लग रहे है...."



 

Tuesday, May 15, 2012

टूटी हुई चप्पल

ऑफिस से निकलते ही किरण को महसूस हो गया था की अब ज्यादा देर चल पाना मुमकिन न हो पायेगा. वह चप्पल घिसट कर लेकिन बड़ी संभल कर चल रही थी. कही टूट न जाए. लेकिन बमुश्किल १०-१५ कदम ही चली होगी की चप्पल टूट गयी. बड़ी हताशा से उसने अपनी टूटी हुई चप्पल को देखा. खामखाँ का खर्च लग गया. अभी करीब एक महीने तक और उस चप्पल को चला लेने की योजना थी उसकी. लेकिन...

चप्पल को सिलवाने के लिए वह नुक्कड़ की तरफ मुड़ गयी.

"८० रुपये लगेंगे, बब्बी." चप्पलवाले ने चप्पल का निरीक्षण करते हुए कहा.

"८० रुपये???" किरण चौंक गयी, "चौक वाले तो ५० रुपये में सिल देते है. क्या हमें बेवकूफ समझते हो? अच्छी लूट मचा रखी है." उसने चप्पलवाले को घुड़कते हुए कहा.

"तो जाओ न बब्बी, चौक वाले से ही सिलवा लो. हमारा टाइम काहे को फ़ोकट में खराब करती हो." चप्पलवाले ने भी तुनक कर जवाब दिया.

किरण असमंजस में पड़ गयी. चौक तक जाने में १० मिनट और फिर आने में १० मिनट यानी लगभग आधा घंटा तो लग ही जाएगा. लेकिन तीस रुपये तो बच जायेंगे. तीस रुपये का मोबाइल रिचार्ज करवा ले तो १० दिन तो चल जाएगा. या फिर वह  उनसे किलो की ४ कापियां कमलेश के लिए ले सकती है.

फिर सोचने में वक़्त नहीं गंवाया किरण ने. टूटी हुई चप्पल उठा कर वह तेज़ कदमो से चौक की तरफ चल पड़ी. नुक्कड़ का चप्पल्वाला उसे देखता रहा. शायद उसे उम्मीद न थी की ये लड़की शाम के वक़्त सिर्फ चप्पल सिलवाने के लिए चौक तक जाने की ज़हमत उठाएगी. उसे पूरी उम्मीद थी की वह मनमाना दाम वसूल लेगा. लेकिन किरण को जाते हुए देखकर वह भौचक्का रह गया. एक ग्राहक खो दिया उसने. ८० के चक्कर में ५० भी गए. उसे बुलाने की हिम्मत भी नहीं जुटा सका वह.

चप्पल सिलवा कर किरण तेज़ी से स्टेशन की तरफ बढ़ रही थी. कीले लगने से चप्पल भारी हो गयी थी. किरण को चलने में बेहद तकलीफ हो रही थी. कीलो से चोट भी लग रही थी उसके पैरो में. लेकिन वह खुश थी की उसने ३० रुपये बचा लिए थे.

ऑटो में बैठते ही उसकी नज़र सूरज पर पड़ी. सूरज उसे ही देख रहा था. जैसे ही किरण ने उसे देखा, उसने मुस्कुरा कर ख़ुशी से अपना हाथ हिला दिया. जवाब में किरण मुस्कुराई. सूरज से उसकी मुलाक़ात यही कोई एक डेढ़ साल पहले हुई थी "युवा कला प्रोत्साहन मंच" द्वारा आयोजित कला प्रदर्शनी में. इत्तेफाक ऐसा की सूरज उस लड़की को ढूंढ रहा था जिसने कैनवास पर रंगों को सजीव कर दिया था और किरण को उस लड़के को ढूंढ रही थी जिसने केवल पेंसिल से एक रेखाचित्र को एक शब्दचित्र बना दिया था. चित्रकार दोनों ही थे लेकिन विधाएं अलग थी और दोनों एक दूसरे की कला के मुरीद हो गए. दोनों मिले और काफी अच्छे दोस्त भी बने. सूरज भी किरण की ही तरह मध्यमवर्गीय परिवार का लड़का था. वह दानापुर में रहता था और किरण आजादनगर में. बाद में किरण को पता चला की सूरज ने अच्छी खासी नौकरी छोड़कर अशोक राजपथ में अकादमिक किताबों और स्टेशनरी की दूकान खोली थी. अपनी जिद के पक्के और जुनूनी सूरज ने जो सोचा था वह कर दिखाया और आज वह अपनी नौकरी की तनख्वाह का दुगुना पैसा अपनी दूकान से कमा रहा था. ज़रा भी बनावटीपन नहीं था सूरज में. बेबाक ऐसा की जो बात दिल में वही बात जुबां पर. उसपर भी स्वभाव से बेहद जिंदादिल और खुशमिजाज़.  किरण को उसकी यही बाते बहुत अच्छी लगती थी. सूरज के दोस्त भी गिने चुने थे और उन्ही में से एक किरण भी थी. हालांकि आपाधापी भरी ज़िन्दगी में बाते कहा हो पाती थी उतनी. स्टेशन से दोनों ही गाडी पकड़ते थे. कभी सूरज नहीं तो कभी किरण नहीं. और कभी ऐसा हो जाए की दोनों एक दूसरे को देख ले सूरज मुस्कुरा कर हाथ हिला देता और किरण भी मुस्कुरा देती. बस ऐसे ही मिलना होता था उन दोनों का. हाँ महीने दो महीने में कभी ऐसा हो जाए की वक़्त भी हो और दोनों साथ भी तो बगल वाले चाय की दूकान पर एक कप चाय पी लेते और दो-चार बाते भी हो जाती.

सूरज के बारे में सोचते सोचते कब घर आ गया किरण को पता भी नहीं चला. ज़ल्दी से ऑटो वाले को पैसे देकर वह घर की और भागी. वैसे ही आधा घंटा देर से पहुंची थी. अन्दर पहुँचते ही उसे रसोई से आवाज़े सुनाई दी. रसोई में पहुँच कर उसने देखा, कमलेश कलछी से सब्जी चला रहा था और माँ पर झल्ला रहा था. माँ आटा निकाल रही थी और किरण पर झल्ला रही थी. बिना कपडे बदले ही किरण ज़ल्दी से रसोई में दाखिल हुई और उसने कमलेश के हाथ से कलछी ले ली. कमलेश पैर पटकता हुआ अपने कमरे में चला गया.

" कितनी बार कहा है की ज़रा ज़ल्दी घर आया कर. लेकिन नहीं. बहाना ढूंढती चलती है काम से बचने का." माँ के स्वर में नाराजगी थी.

"आज ज़रा देर हो गयी." किरण ने कहा, "तुम जाओ माँ, मैं गूंध लुंगी." किरण ने माँ के हाथ से आटे की पतीली ले ली.

"आज ही दो सूट देने है." माँ थकी हुई सी आवाज़ में बोली और रसोई से चली गयी.

सब्जी में पानी की बघार डाल कर किरण ने ज़ल्दी से कपडे बदले और आटा गूंधते हुए चाय भी चढ़ा दी गैस पर.

दो कप में चाय निकाल कर वह कमरे में पहुंची. माँ सूट पर काज कर रही थी.

"तैयार हो गयी?" किरण ने पूछा.

"अभी कहा?" माँ सचमुच थकी हुई थी, "अभी दूसरी वाली में हेम करना है."

"कर लो तुम, बस रोटी बनानी है अब." किरण बोली.

खाना खाकर माँ सूट देने के लिए चली गयी. किरण अपने कमरे में अपने कपडे सहेज रही थी की तभी कमलेश अन्दर आया, "जीजी, पैसे चाहिए." धीमी आवाज़ में बोला.

"कितने?" किरण ने पूछा.

"५००."

"क्यूँ?"

"किताबे लेनी है."

"लिस्ट बना कर दे दो, मैं लेती आउंगी कल."

कमलेश कुछ देर चुपचाप बैठा रहा, फिर धीरे से बोला, "माँ के पैसे खर्च हो गए. मैं जब कमाने लगूंगा तब तुम्हारे सारे पैसे लौटा दूंगा."

"ये देखा है क्या है?" किरण ने थप्पड़ दिखाते हुए कहा, "एक लगेगा तो सारा भूत उतर जाएगा दिमाग पर से. जा चुपचाप जाकर लिस्ट लेकर आ किताबो की."

कमलेश हँस पड़ा. किरण भी हंसी.

"प्रदीप का नया एडिशन आया है. फिसिक्स और केमेस्ट्री चाहिए."

"जो जो चाहिए लिख कर दे दो." किरण बोली.

कमलेश अपने कमरे में चला गया. और किरण अपनी पेंटिंग करने लगी. यह तस्वीर उसे परसों तक बना कर दे देनी थी. पर बहुत काम बचा हुआ था. टूटी हुई चप्पल के कारण पैरो में भी बहुत दर्द हो रहा था उसके. लेकिन काम कैसे छोड़ दे. इसी पेंटिंग के दो हज़ार मिलाने वाले थे.

अगले दिन ऑफिस पहुँचते ही किरण ने अपनी चप्पले उतर कर देखा. पैरो की त्वचा छिल गयी थी. "ये नाजुकता रईसों के लिए है. हमारे लिए नहीं." ज़रा सा चिढ़कर उसने खुद से कहा.

बाबूजी का फ़ोन आया हुआ था. उन्होंने १०,०००/- भेजे थे. बैंक भी जाना था. भला हो ईशान बाबु का. उनके रहते किरण को परेशानी नहीं होती थी बैंक
में. ईशान बाबु बहुत भले आदमी थे. अपनी नेकदिली के कारण मशहूर थे. ऑफिस से आधे दिन की छुट्टी लेकर वह सीधे खजांची रोड की तरफ गयी. शर्माजी उसे देखकर हँसते हुए बोले, "मुझे मालुम था की तुम आओगी. अभी कल ही कमलेश किताबे देखकर गया था."


"हाँ, ये लिस्ट है. ये किताबे निकाल दीजिये, चाचाजी." किरण भी मुस्कुरा कर बोली.


"लो, ३०% की काट दी है." शर्मा जी बोले.


किताबो का बण्डल उठाकर किरण ने पैसे दिए और कृतज्ञता जताते हुए बोली, "आप लोग ही है चाचाजी की हम जैसे लोग इतनी महंगाई के बावजूद पढ़ पा रहे है."


"पढने वालो को मैं भी पहचानता हु, बेटा. कमलेश खूब तरक्की करेगा, देखना."

ऐसे ही कई लोग थे जिनकी वज़ह से किरण के कुछ काम आसान हो जाया करते थे. शर्माजी जहा औरो को १०% से ज्यादा डिस्काउंट नहीं करते थे वही किरण को वह हमेशा ३०% डिस्काउंट पर किताबे देते थे. बैंक में भी ईशान बाबु की बदौलत उसे पैसे ज़ल्दी मिल गए. बाहर आते ही उसने बाबूजी को फ़ोन लगाया, "पैसे मिल गए, बाबूजी."


"ठीक, माँ को दे दो जाकर." बाबूजी ने कहा.


"बाबूजी," किरण ने झिझकते हुए कहा, "वो पिछले महीने कमलेश की फीस के लिए सरिता से ४,०००/- उधार लिए थे. अभी सिर्फ २,०००/- ही लौटाए है. इसमें से एक हज़ार ले लू? बाकी एक हज़ार अगले महीने दे दूंगी."


बाबूजी खामोश हो गए. कुछ देर तक चुप रहने के बाद बोले, "तुमसे कोई बात छुपी नहीं है, बेटा. जो सही लगे करना."


"ठीक ठीक." किरण तुरंत बात समझते हुए बोली, "सरिता समझती है. मैं अगले महीने ही दे दूंगी उसका हिसाब. आप बिलकुल चिंता मत किजिए बाबूजी."


बाबूजी का कलेजा भर आया.

माँ को पैसे थमाकर किरण अपनी तस्वीर पूरी करने बैठ गयी. अंतिम दिन बचा था. गनीमत थी माँ ने दिन में ही सब्जी बना ली थी. घर में पाव रोटी थी. किरण तस्वीर बनाती रही. पर लग नहीं रहा था की पूरी हो पाएगी कल तक. शाम हो गयी. और शाम से रात.


अगले दिन रविवार था. सुबह से ही किरण तस्वीर बनाने में जुटी रही. उसे ध्यान तब टूटा जब माँ एक सूट लिए उसके पास आई.


"कैसा है?" माँ ने पूछा.


"अच्छा है." किरण बोली, "कपडा तो मुलायम है. रंग भी खूबसूरत है. बहुत महंगा लगता है."


"सिर्फ ५०० का है." माँ बोली.


"किसका है?" किरण ने पूछा.


"है एक किरण नाम की लड़की. चित्रकार है. उसी का है. उसकी माँ ने ख़रीदा है उसके लिए." माँ मुस्कुरा रही थी.


"मेरे लिए!" किरण हैरानी से बोली, "लेकिन इतने पैसे कहा से बचाए?"


"कल भेजे थे न बाबूजी ने."


किरण ख़ुशी के मारे कुछ बोल न सकी. बच्चे माता पिता के हृदय का सार कब जान सके है!!

तस्वीर पूरी न हो पाएगी किरण को लगा. उसने वर्माजी को फ़ोन किया.


"लेकिन करार तो आज का ही था किरण. मैंने सिंघानिया साहब को बोल दिया है की आज उन्हें तस्वीर मिल जायेगी." वर्मा जी परेशानी भरे स्वर में बोले.


" मैं कल सुबह खुद आपके पास लेकर आ जाउंगी." किरण ने मिन्नत की.
वर्मा जी कुछ देर खामोश रहे. "ठीक है, आज शाम ६ बजे तक दे दो." और फ़ोन कट गया.


दिन के एक बज रहा था. किरण ने एक ग्लास पानी पिया और फिर से अपनी तूलिका उठा ली.


और आखिरकार ५ बजते बजते तस्वीर पूरी हो गयी. किरण ने उसको कपडे से ढंका और चल पड़ी वर्माजी के घर.


"बहुत अच्छे किरण." वर्मा जी बोले, "ये लो तुम्हारे पैसे."


किरण ने पैसे लेकर उसको पहले आँखों से फिर माथे से लगाया.


"एक नया कांट्रेक्ट है किरण." वर्माजी बोले, "सात सफ़ेद घोड़े शाम के समय पानी में दौड़ते हुए. ६०००/-"


"कब तक?" किरण ने पूछा.


"१० दिन."


"ज़रूर." किरण ख़ुशी से बोली.

ओह्ह! ये टूटी हुई चप्पल! किरण की इच्छा हुई की कीले निकाल कर फ़ेंक दे. मगर क्या करती! अचानक  उसे ध्यान आया की उसने सुबह से कुछ नहीं खाया है.


लिट्टी वाले के ठेले के पास खड़े होकर उसने पूछा, "एक प्लेट कैसे?"


"५० रुपये." लड़के ने जवाब दिया.


"५० रुपये??" किरण को झटका लगा, "कल तक ही तो ४० था आज ५० हो गया. अंधेर मचा रखा है. खूब कमाते हो तुम लोग. खूब लूटते हो."


"हाँ, हाँ. हम लोग ही तो लूटते है. ये जो नेता करोडो अरबो लूट कर खाते है उनको कोई कुछ नहीं कहता. लेकिन हम ५ रुपये कमाई के रखे तो अंधेर मच जाता है. एक लिट्टी पर मुश्किल से दो रुपये बचते है. और उस पर हम लोग ही लूटेरे है." लड़का शायद भरा बैठा था, किरण के बोलते ही फूट पड़ा.
किरण को उसकी आवाज़ में अपनी बात सुनाई दी. "अच्छा, एक प्लेट लगा दो, भाई." वह बोली. उसे सचमुच 
जोर की भूख लग गयी थी.


वह पैसे निकाल रही थी की लड़के ने प्लेट उसके सामने रख दी.


"५ लिट्टियाँ? एक प्लेट की तो ४ आती है न?" किरण ने आश्चर्य से पूछा.


"खा लो दीदी. आशीर्वाद दे दो." लड़के ने स्निग्ध वाणी से कहा.


किरण को दया हो आई उस पर. सारे दिन धुप में खड़े होकर लिट्टियाँ बनाता और बेचता था वह. फिर दिल में इतनी दया और इतनी इंसानियत.


"मौर्यालोक से भी बड़ा होटल होगा एक दिन तुम्हारा, देखना." किरण मुस्कुरा कर बोली. लड़के के चेहरे पर भी हंसी आ गयी.

घर की तरफ जा ही रही थी की न जाने क्या इच्छा हुई की किरण गंगा घाट की तरफ मुड़ गयी. गंगा आरती में वक़्त था अभी. घाट पर ज्यादा लोग भी नहीं थे. किरण चप्पले उतार कर अपने पैर पानी में डाल कर बैठ गयी. ठन्डे पानी के स्पर्श ने उसके ज़ख़्मी पैरो पर मरहम का काम किया.
उसे लगा की उसकी ज़िन्दगी भी तो इस कीले लगी हुई टूटी चप्पल के ही जैसी थी. भारी और तकलीफदेह. इसके विपरीत कितना शांत था गंगाजी का पानी. कितना सुकून था वहाँ पर. इसी सुकून की तो किरण को भी तलाश थी. थोडा सुकून जिसके साथ वह अपनी परेशानियां भूल जाए. बहुत ज्यादा आरामतलब जीवन नहीं चाहिए था उसे. बस थोड़े सुकून के पल ज्यादा हो. और क्या. 

वह चप्पले पहन कर चलने को हुई की तभी एक छाया  देखि. पीछे कोई खड़ा था.

"सूरज तुम?" वह हैरान थी उसे देखकर, "कब आये?"


"अरे मैं तो काफी देर से हु." सूरज हंसकर बोला. "अरे" उसका तकियाकलाम था. हर बात की शुरुआत वह "अरे " से करता था. "अरे, आओ बैठो कुछ देर, फिर चले जाना."


किरण मना नहीं कर पायी.


"अरे, और सब कुछ कैसा चल रहा है?" सूरज ने ही पूछा.


"ठीक है सब." किरण बोली, "नया कांट्रेक्ट मिला है." किरण ने अपनी तकलीफों के बारे में सूरज को कुछ नहीं बताया था. उसे पसंद नहीं था अपना दुखड़ा रोकर किसी की दया बटोरना. "तुम बोलो." उसने सूरज से पूछा.


"अरे मेरा भी सब ठीक. अभी परीक्षा है न. पीक सीजन है. जिस्ता की डिमांड ज्यादा है."


"अच्छी बात." किरण बोली.


"अरे, मैं तो भूल ही गया." अचानक सूरज बोला, "ये देखो, मैंने तुम्हारी तस्वीर बनायी थी." कहते हुए उसने एक कागज़ अपनी शर्ट की जेब से निकाल कर किरण के हाथ में थमा दिया.


किरन ने देखा, उसका रेखाचित्र था. वह सम्मोहित सी देखने लगी.


"तुम्हारी आँखे बनाने में सबसे ज्यादा वक़्त लगा. तुम्हारे जैसी आँखे बन ही नहीं पा रही थी. बहुत कोशिशो के बाद बनी. तुम नाराज़ तो नहीं हो न?"
 

नाराज़ क्यों न हो? सूरज की हिम्मत कैसे हुई उसकी तस्वीर बनाने की? वह भी उससे बिना पूछे? किरण के जी में यही सवाल आने को थे. लेकिन आ नहीं रहे थे. उसे चाहकर भी गुस्सा नहीं आया सूरज पर.
 

"कितना वक़्त बर्बाद किया इस पर?" उसने एक अजीब सा सवाल पूछा सूरज से.


"बर्बाद? अरे, तुम्हारी बहुत सारी तस्वीरे बनायीं है मैंने. लेकिन यह तस्वीर सबसे अच्छी है. इसलिए इसे हमेशा अपने साथ रखता हु. कई दिनों से सोच रहा था तुम्हे दिखाने के लिए. लेकिन वक़्त ही नहीं मिल पा रहा था. इत्तेफाक से देखो की आज मिल गयी तुम. और इस तस्वीर को तो पूरी रात जाग कर बनाया है मैंने. मैंने कहा न बहुत मेहनत लगी इसे बनाने में."

किरण हैरानी से सूरज को देख रही थी. उसे लगा की उसकी टूटी हुई चप्पल, जो कीले लगने से भारी हो गयी थी, अचानक बिलकुल हलकी हो गयी है....
 






Saturday, April 28, 2012

मेरी आँखों में देखने की कोशिश न करना

मेरी आँखों में देखने की कोशिश न करना
इनमे तुम्हे अपने लिए दीवानगी नज़र आएगी
मेरे चेहरे को पढने की कोशिश जो करोगे
तुम्हे भी मेरी बेइन्तेहाँ चाहत हो  जायेगी


दोस्तों की भीड़ में खोयी हुई समझना
हर ग़म से बेखबर हो सोयी हुई समझना
मेरे दिल में झांकने की कोशिश न करना
दिल दहला देने वाली वीरानगी नज़र आएगी
गर खयालो में मुझे तुम लाने लगोगे
तुम्हे भी फिर मेरी आदत हो जायेगी


बेवज़ह की कोई पहचान ही समझना
मुझे तुम अजनबी अनजान ही समझना
मेरे अल्फाजो को महसूस करने की कोशिश न करना
बस तुमसे ही जुड़ी तिश्नगी नज़र आएगी
मेरे जज्बातों को समझने की कोशिश जो करोगे
तुम्हे भी मुझसे बेपनाह मुहब्बत हो जायेगी

- स्नेहा गुप्ता  
00:45 A.M. 28/04/2012 
  

Saturday, April 21, 2012

करता क्यों नहीं




करता क्यों नहीं मेरे लिए दुआ आज कोई
क्या रहा नहीं मेरा यहाँ आज कोई

मेरी ज़ुरूरत नहीं रह गयी शायद अब किसी को
देता नहीं मुझको सदां आज कोई

गुमसुम सी शक्लें खामोश सारे होठ,
करेगा मेरा दर्द कैसे बयाँ आज कोई

यूं ग़मज़दा होकर सब बैठे हैं महफ़िल में,
हो गयी हो जैसे चाहत फ़ना आज कोई

क्यों लिपटा रखा है मुझे सफ़ेद चादर में इस तरह
हो गयी क्या मुझसे फिर खता आज कोई

- स्नेहा गुप्ता


Friday, April 13, 2012

खामखाँ सी ज़िँदगी






खामखाँ उन राहोँ

की रहगुज़र रखना

खामखाँ हर एक

बात की खबर रखना

खामखाँ की बातेँ

खामखाँ के सपने

खामखाँ पराए

लगने लगते हैँ अपने

फिर उनका यूँ बातेँ बनाना

और उसपर भी अंदाज़ शायराना

फिर करके गुस्ताखी

खामखाँ मुस्कुराना

ग़र मुमकिन नहीँ तकदीरेँ बनाना

खामखाँ फिर क्योँ तस्वीरेँ बनाना

शुक्र है खुदा का

हुई न मुलाकातेँ

खामखाँ बढ़ जाती

फिर ये सारी बातेँ

खामखाँ है फिर भी

इनका ज़ेहन मेँ आना

दुखती ज़िँदगी को

खामखाँ फिर दुखाना

हैँ बड़ी ही ये नाज़ुक

खामखाँ दर्द सहेँगी

टूटे सपनोँ की कड़ियाँ

जब आँखोँ को चुभेँगी

खामखाँ रो पड़ेँगी

खामखाँ ऐसी किस्मत

खामखाँ ऐसी चाहत

खामखाँ फिर किस्मत की

इनायत की हसरत

वे कहते हैँ किस्मत को

खामखाँ है सोचना

तकदीर को अपने ही

हाथोँ से तुम लिखना

खामखाँ ये उम्मीदेँ

बढ़ती ही गई

खामखाँ वे न समझे

कि मैँ हूँ वही

खामखाँ बन गई एक

कहानी अनकही हूँ

इक इंसान हूँ मैँ भी

फ़रिश्ता नही हूँ

खामखाँ ये लफ़्ज़

खामखाँ ये ग़ज़ल

खामखाँ सी ज़िँदगी

हो गई है आजकल



- स्नेहा गुप्ता

07/04/2012

09:30 P.M.