Thursday, September 29, 2016

हे गुलअफशां कहां गयी...

बिहार की संस्कृति में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है बिहार की लोक कथाएँ. सबसे ख़ास बात यह है कि इन लोक कथाओं में सम्प्रदाय की कोई महत्ता नहीं होती. ये कथाएँ बस कथाएँ होती है. उन्ही में से एक है गुलअफशां  की कहानी...

गुलअफशां  की कहानी फूलो ने कही थी. इसलिए उसका नाम 
गुलअफशां पड़ा. गुलअफशां यानी गुलो का अफ़साना यानी वो अफ़साना जो गुलो ने कहा. गुलअफशां गुलिस्तान की शहजादी थी. कहा जाता है की वह जहां भी जाती थी वहाँ फूल खिल जाते थे. वह जिस बाग़ में जाती थी उस बाग़ के मुरझाये हुए फूल भी खिल जाते थे. उसके महल के फूल कभी नहीं मुरझाते थे. 


[चित्र: गूगल से साभार]

एक सुबह  
गुलअफशां अन्धेरा रहते ही महल से एक बाग़ की ओर चल पड़ी. महल के सैनिको ने उससे पूछा कि वह कहाँ जा रही है तो उसने जवाब दिया कि वह ज़ल्द ही लौट आएगी. 
महल से कुछ दूर एक बाग़ था. गुलअफशां वही चली गयी. उस बाग़ के बहुत सारे फूल मुरझा गए थे. जैसे ही गुलअफशां वहाँ पहुंची, उस बाग़ के सारे फूल खिल गए. यह देख कर गुलअफशां बहुत खुश हुई. वह  काफी देर तक बैठ कर फूलो से बतियाती रही. जब शाम होने को आई और गुलअफशां चलने को हुई तब वो सारे मुरझाये हुए फूल जो गुलअफशां के आने से खिल गए थे, फिर से मुरझाने लगे. यह देख सारे फूल डर गए. उन्होंने सोचा कि कितना अच्छा हो यदि गुलअफशां इस बाग़ से जा ही न सके. यही सोचकर उन फूलो ने गुलअफशां को खुद में क़ैद कर लिया. 

जब रात ढले भी गुलअफशां घर नहीं पहुंची तो बादशाह ने अपने सैनिको से पूछा. सैनिको ने जवाब दिया कि गुलअफशां ने उन लोगो से कहा था कि वह ज़ल्दी  ही लौट आएगी. यह सुनकर बादशाह ने खोजी दस्ते चारो दिशा में दौड़ा दिए. हर खोजी दस्ता गुलअफशां को आवाज़ लगाता हुआ जाता - "हे गुलअफशां कहा गयी, तीरनछोड़ [ तीरनछोड़ यानी जो तीर छोड़ते है यानी सैनिक] को कहे गयी... हे गुलअफशां कहाँ गयी, तीरनछोड़ को कहे गयी..."

लेकिन 
गुलअफशां कही नहीं मिली...

फिर बादशाह ने मुनादी करवा दी कि जो कोई 
गुलअफशां को ढूंढ कर लाएगा उससे गुलअफशां का निकाह कर दिया जाएगा और आधा गुलिस्तान दे दिया जाएगा [ जैसा कि हर लोक कथा में होता है]. यह मुनादी सुनकर कई लोग गुलअफशां की खोज में निकले लेकिन कोई भी उसे खोज नहीं पाया. 

एक बार एक शहजादा गुलअफशां की खोज में निकला. वह सबसे पहले गुलिस्तान पहुंचा. वहाँ उसने सबसे बड़े चित्रकार को बुलाकर गुलअफशां की तस्वीर बनवाई. उसने गुलअफशां बारे में सारी जानकारी इकट्ठी की और उसकी खोज में चल पड़ा. चलते चलते वह गुलअफशां को आवाज़ देता जाता - "हे गुलअफशां कहां गयी, तीरनछोड़ को कहे गयी..." साथ ही वह गुलअफशां की तस्वीर को भी अपने सीने  से लगाए रहता. उसे  गुलअफशां से मुहब्बत हो गयी थी. 

चलते चलते शहजादा उसी बाग़ में पहुँच गया जहा गुलअफशां को फूलो ने क़ैद करके रखा था. शहजादा गुलअफशां की याद में बिलकुल बेचैन हो गया. उसे लगा कि अब उसे गुलअफशां कभी नहीं मिलेगी. गुलअफशां की याद में उसे होश नहीं रहा और वह बेहोश होकर ठीक उन्ही फूलो की जड़ के पास गिर पड़ा जिनमे गुलअफशां क़ैद थी. बेहोशी कि हालत में ही शहजादे की आँखों से आंसू बह निकले. क्यूंकि ये आंसू शहजादे की पाक मुहब्बत का सबूत थे, उन्ही आंसुओ से वे जंजीरे गल गयी जिनसे गुलअफशां को बाँधा गया था. ज़ंजीरो के गलते ही गुलअफशां फूलो की क़ैद से आज़ाद हो गयी. 

गुलअफशां ने जब बेहोश शहजादे को देखा तो वह समझ गयी कि इसी शहजादे ने उसे क़ैद से छुडाया है. उसने शहजादे की आँखों पर हाथ फिराया तो शहजादे को होश आ गया. गुलअफशां को अपने सामने  देखकर शहजादे की ख़ुशी का ठिकाना न रहा. वह गुलअफशां को अपने घोड़े पर बिठाकर चलने को तैयार हुआ. जैसे ही गुलअफशां बाग़ से जाने को तैयार हुई, वैसे ही बाग़ के सारे फूल मुरझाने लगे. यह देखकर गुलअफशां को दया आ गयी. उसने सोचा की आखिर  फूलो की भी तो इच्छा थी की वे हमेशा खिले रहे. गुलअफशां इतनी नेकदिल थी की उसने उसी वक़्त उन फूलो के हमेशा खिले रहने  की दुआ खुदा से मांगी. खुदा ने नेकदिल गुलअफशां की दुआ कबूल की. शहजादा गुलअफशां को लेकर वापस गुलिस्तान चला गया.

उस बाग़ के फूल फिर कभी नहीं मुरझाएं और उन्हें गुलअफशां के फूलो के नाम से ही जाना जाने लगा. 

अब ये 
गुलअफशां के फूल कहाँ  खिलते है और कहाँ  मिलते है ये तो मुझे पता नहीं लेकिन कहा जाता है की गुलअफशां के फूल कभी नहीं मुरझाते...


[चित्र: गूगल से साभार]



Monday, September 26, 2016

लड्डू वाली कहानी

दोस्तों नमस्कार,

आज एक लोक कथा लेकर प्रस्तुत हूँ. यह एक भोजपुरी लोक कथा है जिसका मैं हिंदी रूपांतरण प्रस्तुत कर रही हूँ.

एक सेठ जी थे. उनका लड्डूओं का कारोबार था. उनके लड्डू दूर दूर तक मशहूर थे. उन्होंने एक साधारण लड्डू वाले की हैसियत से अपना काम शुरू किया था लेकिन उनकी उनकी कारीगरी और बनाए हुए बेहतरीन लड्डूओं की बदौलत उनका काम बढ़ता चला गया और उनकी गिनती रईसों में होने लगी. फिर भी वे बड़े ज़मीनी आदमी थे और दौलत का नशा उनपर नहीं चढ़ पाया. सेठ जी के चार लड़के थे. उन्होंने अपने चारो लडको को लड्डू बनाने की कला में पारंगत कर रखा था. बेटे भी पिता के नक्शेकदम पर चल रहे थे.

सेठ जी की एक आदत थी. अक्सर वह लड्डू बाँधने का काम करने वक़्त गुनगुनाया करते थे - "लड्डूआ लड़ें तो बुंदिया झड़ें... बुंदियाँ झड़ें तो लड्डूआ मरे...."

सेठ जी की देखा देखी उनके सारे नौकर और उनके लड़के भी यह गीत अक्सर गुनगुनाते रहते थे. सेठ जी यह देख देख कर मुस्कुराते थे. यह अलग बात थी कि इसका मतलब कोई नहीं जानता था.

एक दिन सेठ जी ने तीर्थ करने की सोची. उन्होंने अपने चारो लडको को बुलाया और उन्हें समझाया - "मैं तीर्थ करने जा रहा हूँ. मेरे पीछे घर और कारोबार का ध्यान रखना. और चाहे कितना भी कुछ भी क्यों न हो जाए. आपस में मेल रखना और दुसरो की बात पर कान मत देना."
यह कहकर सेठ जी चले गए.

सेठ जी के जाने के बाद लडको ने खूब अच्छे से सब कुछ संभाला. चार जनों ने मिलकर काम किया तो कारोबार और भी बढ़ने लगा. यह देखकर उन्होंने अपना काम बाँट लिया कि दो भाई लड्डू बनायेंगे और दो भाई हिसाब किताब करेंगे. कुछ दिन तो सब ठीक चला लेकिन चारो में काम को लेकर तनातनी होने लगी. लड्डू बनाने वाले भाइयों ने सोचा कि सारा काम तो हम करते है और ये तो बस किताब कलम लेकर सारा दिन गद्दी तोड़ते है. हिसाब किताब करने वाले भाइयों ने सोचा कि सारा काम तो हम करते है - माल पहुँचाना, बिक्री का हिसाब रखना, मोल जोल करना. ये दोनों तो बस मजे से लड्डू बनाते है. आधा खाते है आधा दूकान पर पहुंचाते है.
बात बढ़ी, लड़ाई झगडे तक पहुँच गयी. मार पीट हुई और सबने गुस्से में काम धंधा बंद कर दिया. फैसला हुआ कि पिता के तीर्थ से लौटते ही बंटवारा कर लिया जाएगा.
काम ठप्प हुआ तो ग्राहक भी बिखरने लगे. अच्छा ख़ासा कारोबार बर्बाद होने लगा.

चारों एक दिन इसी तरह बैठकर मक्खी मारते हुए बंटवारे का इंतज़ार कर रहे थे. कि अचानक सबसे छोटे भाई को पिता का  गाया हुआ गीत याद आया - "लड्डूआ लड़ें तो बुंदियाँ झड़ें.... बुंदियाँ झड़ें... तो लड्डूआ मरें..."

छोटे भाई को गाते देख बाकी भाई भी सुर मिलाने लगे. तभी अचानक बड़े भाई ने सोचा कि आखिर पिताजी यह गीत हमेशा क्यों गाते थे. उसने अपने भाइयो से इस बाबत पूछा. जब भाइयों ने गीत के बोलों पर ध्यान दिया तब जाकर उन्हें इस गीत की महत्ता समझ में आई - 'लड्डूआ लड़ें ... तो बुंदियाँ झड़ें...'  मतलब जब लड्डू आपस में लड़ते है यानि टकराते है तो बूंदी झड़कर गिरती है. 'बुंदियाँ झड़ें तो लड्डूआ  मरें...' मतलब लड्डू बूंदी से ही बनते है और जब आपस में टकराने के कारण बूंदी झडती है तो इससे उनका खुद का विनाश होता है. और इसतरह लड्डू बर्बाद हो जाते है.




अब जाकर भाइयों के समझ में आया कि उनके पिताजी गीत के ज़रिये ही उन्हें मिल जुल कर रहने की सीख देते थे. उन्हें अपनी गलती पर बहुत शर्मिंदगी हुई. उन्होंने फिर कभी आपस में न लड़ने की ठानी  और उसी वक़्त कामकाज दुबारा शुरू कर दिया. सेठ जी के लौटने तक कारोबार फिर से पहले जैसा हो गया. और सेठ जी लौटकर अपने बेटो का आपस में प्रेम देखकर गदगद हो उठे.


~ लोक कथाओं के माध्यम से नैतिक शिक्षा देना हमारे समाज की परंपरा रही है. यह लोक कथा उसी का एक हिस्सा है. ~ 

Friday, September 23, 2016

उन दिनों की प्रेम कहानी...

ये उन दिनों की कहानी है जब प्यार एसएमएस और इन्टरनेट का मोहताज नहीं हुआ था. तब परदेस में कमाने वाले पतियों की घर संभालने वाली अपनी पत्नियों के साथ बगैर किसी लोचे के “लॉन्ग डिस्टेंस रिलेशनशिप” निभती थी. उस ज़माने में आँखें बाकायदा चार हुआ करती थी. इस गंभीर वाले अनबोले प्यार से इतर हाई स्कूल और कॉलेज वाला प्यार भी खूब प्रचलित हुआ करता था. आइसक्रीम की डंडियाँ “फर्स्ट फ्लाइट कूरियर” से भी सरपट प्रेमपत्र पहुंचाने का काम करती थी.

ये उस वक़्त की कहानी है जब सारी दुनिया से लताड़े जाने के बावजूद प्यार में खूब मासूमियत बची थी और ये अपने भोलेपन के साथ लड़के लड़कियों की ज़िन्दगी को सपनीला बनाने के काम में मुस्तैदी के साथ जुटा था.

अपनी ये लड़की उसी जमाने की थी. तो कहानी कुछ यूँ शुरू हुई कि उसके माँ बाप ने उसकी जिद्द के आगे झुककर उसे एक साइकिल खरीद कर दी. लड़की उसी से कॉलेज आने जाने लगी. फिर एक दिन खुद को सायरा बानो बूझते हुए वह “मैं चली मैं चली देखो प्यार की गली...” गुनगुनाते हुए जा रही थी. आमतौर पर कहानियों में लड़का लड़की से टकराता है. लेकिन यहाँ पर अपनी इस लड़की ने ही सामने से आते एक लड़के की साइकिल को ठोक दिया. आमतौर पर इसके आगे यूँ होता कि लड़की आँखें तरेरते हुए लड़के की खूब खबर लेती और लड़का कुछ कुछ फ़िल्मी से अंदाज़ में माफ़ी मांगता. पर यहाँ हुआ ठीक उल्टा. लड़की घबरा गयी और फ़ौरन साइकिल से उतरते हुए खुद ही लड़के को “सॉरी” बोल पड़ी. लड़का कहना तो बहुत कुछ चाहता था लेकिन उसका घबराया हुआ चेहरा देखकर शांत हो गया और कुछ न बोला. लड़की चुपचाप साइकिल लेकर घर की तरफ चल पड़ी. उसे ये बिलकुल भी मालुम न चला कि लड़का चोरी चोरी धीरे धीरे पैडल मारता हुआ उसके घर का रास्ता देख रहा है. खैर, लड़की अपने घर सही सलामत पहुँच गयी और लड़के ने उसकी गली को याद कर लिया.

कहानी यहाँ से शुरू होती है.

उसके बाद लड़की ने कई बार उस लड़के को अपनी गली में देखा. वह उसे देखकर घबरा जाती थी. उसे डर था कि कही वह लड़का उसके पापा से उसकी शिकायत करने तो नहीं आया. या फिर शायद उसकी साइकिल का कोई अंजर पंजर टूट गया था जिसकी कीमत वसूलने आया हो. लेकिन ऐसा कुछ न हुआ. लड़का बस उस गली के चक्कर लगाता और लड़की से नज़रे टकराने पर मुस्कुरा देता. लड़की बड़ी भोंदू थी. कुल मिलाकर ४३ चक्करों के बाद उसे लड़के की मंशा समझ में आई और यह सोचकर ही उसके गाल लाल हो उठे. तो जब लड़का अगले चक्कर के वक़्त उसे देखकर मुस्कुराया तो वह भी मुस्कुरा दी. लड़के की तो बल्लियाँ उछलने लगी. प्रेम दोतरफा जो हो गया था. उसके बाद लड़का जब भी चक्कर लगाता तो “तुझको पुकारे मेरा प्यार...” गाता हुआ निकलता तो लड़की उसकी आवाज़ सुनते ही कभी कथरियाँ सुखाने तो कभी देहरी से आवारा कुत्तो को भगाने के बहाने बाहर निकलती. दोनों एक दुसरे को देखते. लड़का मुस्कुराता और लड़की शरमा जाती. फिर लड़का कालर सीधा करता हुआ “मेरी नींदों में तुम, मेरे ख़्वाबों में तुम...” गाता हुआ निकल जाता. उस जमाने  में यही “डेटिंग” हुआ करती थी.

कहानी यहाँ ख़त्म नहीं होती.

इसके आगे कहानी में बहुत कुछ होने की संभावना थी लेकिन संभावना हमेशा संभावना ही बनी रही. चक्कर लगाते, फ़िल्मी गाने गाते, रिझाते और शर्माते साल बीता और लड़की की शादी कहीं और हो गयी. लड़की उस जमाने की थी. वह चुप्पी मार कर पति, बच्चों और घर गृहस्थी में रम गयी और किसी को कभी कुछ पता न चला. हाँ, लड़के के घर के टेप रिकॉर्डर में “भँवरे ने खिलाया फूल, फूल को ले गया राजकुंवर...” कई महीनों तक बजता रहा. फिर वह भी शांत हो गया. और इस तरह मोहल्ले की ये प्रेम कहानी दुनियादारी की भेंट चढ़ गयी.

अगर हमारा बस चले तो हम ‘इफ़ेक्ट’ के लिए बैकग्राउंड में “दो दिल टूटे दो दिल हारे...” भी बजवा दे...

लेकिन कहानी यहाँ भी ख़त्म नहीं होती.

कई साल बीत गए. लड़का और लड़की अब नाती पोते वाले होने को है. लड़की जब कभी मायके आती है तो बाज़ार जाते हुए जिस जगह पर उस लड़के की साइकिल को ठोका था उस जगह पर पहुँचते ही उसके चेहरे पर ठीक वैसी ही मुस्कान आ जाती है जो उस लड़की के गली से गुजरते हुए लड़के के चेहरे पे आती है. इस मुस्कान से इन दोनों का बड़ा पुराना रिश्ता सा बन गया है. और जिन पुराने गानो को सुनते हुए लड़का मुस्कुरा दिया करता है उन्हें सुनकर लड़की आज भी शरमा जाती है.

कहानी यहाँ भी ख़त्म नहीं होती. दरअसल ये कहानी ख़त्म ही नहीं होती. क्यूंकि उस जमाने की प्रेम कहानियाँ कभी ख़त्म ही नहीं होती... कुछ तो था उस जमाने में और उस जमाने की प्रेम कहानियों में... क्यूंकि ये उन दिनों की कहानी है जब प्यार एसएमएस और इन्टरनेट का मोहताज नहीं हुआ था...


[चित्र: गूगल से साभार]


© स्नेहा राहुल चौधरी