मुझे आज भी वो दिन अच्छे से
याद है जब मैं और मेरे पति सोमेश पहली बार इस घर में आये थे. उनका ‘प्रमोशन’
तबादले के तूफ़ान को साथ लेकर आया था. लेकिन उन्होंने बड़ी ख़ुशी से इसे स्वीकार किया
था.
सोमेश राजस्व विभाग में थे.
हमारी शादी को कुछ ही महीने हुए थे. मैंने शादी से पहले उन्हें नहीं देखा था.
हमारे यहाँ विवाह पूर्व एक दूसरे को देखने की परम्परा नहीं थी और फोटो मांगने की
मेरी कभी हिम्मत नहीं हुई. काफी वक़्त बीत जाने के बाद भी मैं खुलकर उनसे बात नहीं
कर पाती थी. लेकिन मुझे इस बात का एहसास था कि वे बहुत खुश थे और मुझे अपने लिए
‘लकी’ मानते थे. अक्सर बैठक से उनके और उनके दोस्तों की कहकहों की आवाजें आती.
“यार, तुम तो शादी के बाद
भी बड़े खुश हो...?” उनके दोस्त कहते.
“खुश नहीं, खुशनसीब कहो.
मेघा के आने के बाद से सब कुछ अच्छा अच्छा ही हो रहा है.” उनकी आवाज़ आती. और मेरा
खुद पर इतराने को दिल करता.
उनके ‘प्रोमोशन’ के बाद जब
हम दोनों शिमला के उस छोटे से प्रखंड में जाने के लिए ख़ुशी ख़ुशी सामान बाँधने लगे.
लेकिन आगे क्या होने वाला था ये मुझे पता नहीं था...
सरकारी बंगले में कुछ काम
चल रहा था जिसके पूरा होने में करीब एक महिना लगना था. तब तक हमें अपनी सुविधा का
एक मकान सरकारी किराए पर ले लेने को कहा गया था. पता चला था कि आबादी से कुछ दूर
सूरबी गली के छोर पर एक मकान खाली पड़ा था. हमने सामान बाँधा और चल पड़े.
ड्राईवर ने हमें सूरबी गली
के बीच में ही उतार दिया.
“यहाँ क्यों रोका?” सोमेश
ने हैरान होकर पूछा.
“आपने पहले नहीं बताया था
कि आपको सूरबी गली के छोर पर जाना है.” ड्राईवर ने भन्नाई हुई सी आवाज़ में कहा.
“अरे! कहा तो था कि सूरबी
गली में जाना है.” सोमेश ने अचंभित होकर कहा.
“छोर पर जाना है ये नहीं
कहा था.” ड्राईवर ने हमारा सामान उतारना शुरू कर दिया था.
“अरे! रुको, रुको.” सोमेश
हैरान थे, “भाई, सिर्फ एक-डेढ़ मील की ही तो दूरी है. शाम भी घिर रही है. सामान है
और पत्नी भी है साथ में. कुछ तो सोचो.” सोमेश ने लगभग मिन्नत सी की.
“गाडी इसके आगे नहीं
जायेगी.” ड्राईवर ने कहा, “मुझे मेरे पैसे दीजिये और मेरा पीछा छोड़िये.”
सोमेश को गुस्सा आ गया,
“तुम जानते हो मैं कौन हूँ? तुम्हारा लाइसेंस रद्द करवा दूंगा. चालान करके जेल
भिजवा दूंगा.”
“भिजवा देना साहेब.”
ड्राईवर ने हाथ जोड़ कर कहा, “जिंदा रहा तो जेल से छूट भी जाऊँगा. अब जाने दो.”
कहकर वह गाडी में बैठा और गाडी घुमाकर बिना पैसे लिए ही वहा से निकल गया.
“अजीब आदमी है. ज़रूर उसके
पीने खाने का वक़्त हो रहा होगा…” सोमेश ने मुझे तसल्ली देने के अंदाज़ से कहा.
हालांकि मैं सचमुच थोड़ी
घबरा सी गयी थी. अँधेरा घिरने को था और करीब एक मील दूर जाना था हमें. फिर भी मैं
अपने पति की कमजोरी नहीं बनना चाहती थी. “कोई बात नहीं.” मैंने कहा. “सिर्फ तीन ही
तो बैग है. दो आप उठा लीजिये. एक मैं उठा लेती हूँ.”
सोमेश ने मुझे देखा. एक पल
तो चुप रहे. फिर हंस कर बोले, “बड़ी चालाक हो. मैं दो उठाऊ और तुम सिर्फ एक?”
“तो बताइए क्या करू?” मैंने
भी हंस कर पूछा.
“कुछ नहीं. कुली बन जाओ.”
कहकर उन्होंने सामान उठा लिया और चल पड़े. मैं भी उनके पीछे पीछे चल दी.
कुछ दूर तक हम खामोशी से
चलते रहे. हवा थोड़ी सी तेज़ हो गयी थी. सड़क के दोनों किनारे छोटी छोटी झोपड़ियां बनी
हुई थी. लेकिन उन्हें देखकर साफ़ पता चल रहा था कि उनमे रहने वाला कोई नहीं था.
अजीब बात ये थी कि जिस गली के मुहाने पर खूब चहल पहल थी उसी गली के दूसरे छोर पर
वीराने जैसी स्थिति थी.
खैर, हम चलते रहे. थोड़ी देर
बाद सोमेश बोले, “मेघा, मैं बहुत शर्मिंदा हूँ. क्या करू? ड्राईवर ने भी ऐसे वक़्त
पर धोखा दे दिया.”
“कोई बात नहीं. होता है कभी
कभी ... कुछ लोग अचानक से बदल जाते है.” मैंने धीरे से कहा.
सोमेश फिर कुछ नहीं बोले.
करीब १० मिनट बाद हमें वह
मकान दिख गया. मकान के दीखते ही क़दमों में भी फुर्ती आ गयी और कुछ ही पलों में हम उसके
सामने खड़े थे. सुकून की बात ये थी सांझ ढली नहीं थी.
मकान एकमंजिला था. सोमेश ने
‘लकड़ी के फाटक को हल्का सा धक्का दिया तो वह खुल गया. सामने बड़ा सा ‘लॉन’ था.
देखकर मेरा तो मन खुश हो गया. लगा सारी थकान उतर गयी.
हमने अन्दर कदम रखा. तभी
जोर की हवा चली और अजीब सी बदबू तैर गयी.
“छिः!” मेरे मुंह से निकला,
“लगता है ये बहुत दिनों से खाली पड़ा है. साफ़ सफाई का काम सबसे पहले करना होगा. तभी
मैं सो पाउंगी यहाँ. ऐसे मुझे नींद नहीं आएगी.”
मैं अपनी ही धुन में बोले
जा रही थी कि मुझे ध्यान आया कि सोमेश काफी देर से खामोश थे. मैंने पीछे मुड़ कर
देखा तो पाया कि वह वही फाटक के पास दोनों बैग हाथ में उठाये अजीब सी नजरो से मकान
को घूर रहे थे. मुझे बड़ी हैरानी हुई.
मैं उनके पास गयी और उनके
हाथ को झटक दिया, “सुनिए, आपसे बात कर रही हूँ. साफ़ सफाई में मेरी मदद कर दीजियेगा
‘प्लीज़’!.”
सोमेश ने मुझे बड़ी ही शांत
नज़रों से देखा. कुछ देर तक बस देखते रहे. मेरा कलेजा मुंह को आ गया. सोमेश बहुत ही
खुशमिजाज़ इंसान थे. उनका इस तरह खामोश होना मुझे सिहरा गया था.
“मेघा,” वह शांति से बोले,
“कुछ ठीक नहीं लग रहा. सर घूम रहा है.”
“आप थक गए है.” मैंने
हडबडाकर कहा, “अन्दर चलिए.”
सोमेश ने दोनों बैग अपने
कंधे पर टांग लिए और आदत और स्वभाव के विपरीत खामोशी से मेरा हाथ पकड़ के अन्दर
चले. बाहरी दरवाज़े का ताला खुलते ही फिर वही अजीब सी बदबू हवा में तैर गयी. लेकिन
कुछ ही पलों में गायब भी हो गयी.
बीच में हॉल के अलावा मकान
में २-३ कमरे दिखाई दे रहे थे. सोमेश ने दरवाज़े के पीछे लगे स्विच को ऑन किया और
पूरा मकान रोशनी से नहा गया. मकान में ज़रुरत की लगभग हर एक चीज़ मौजूद थी. सारे
फर्नीचर सफ़ेद कपडे से ढके थे.
मैंने सोमेश की अचानक से
बिगड़ी तबियत से अंदाज़ा लगाया था कि वह घुसते ही ‘डिनर’ के लिए बोलेंगे और फिर सो
जायेंगे. लेकिन सोमेश ने सारे सफ़ेद कपड़ो को हटाना शुरू कर दिया. उन्हें घरेलु
कामकाज में कभी दिलचस्पी नहीं रही थी. मैं उनका ये रूप देखकर हैरान थी. मैंने
ज़ल्दी से सारे बैग एक तरफ रखे और खुद भी एक कपडा लेकर ‘सोफे’ और ‘टेबल’ पोछने लगी.
तभी सोमेश न जाने कहाँ से एक झाड़ू ले आये. उन्होंने धुल झाड़ने के साथ साथ जाले
हटाने भी शुरू कर दिए.
“आप रहने दीजिये. आराम
करिए. मैं करती हूँ न...!” मैंने उनके हाथ से झाड़ू लेने की कोशिश की.
“चुपचाप वहां बैठ जाओ.”
सोमेश ने कड़कती आवाज़ में कहा.
मैं डर गयी. तेज़ आवाज़ में
बोलना तो दूर, सोमेश ने कभी मुझे तेज़ नज़रों से देखा तक नहीं था. लेकिन मुझे लगा कि
शायद सफ़र की थकान से वह खीझ से गए थे. मैंने कुछ भी जवाब देना सही नहीं समझा.
चुपचाप बैग में से कपडे और सामान निकालने लगी. सोमेश अकेले ही घर की सफाई करते
रहे.
करीब दो घंटे बाद, हमारा घर
रहने लायक हो गया. कपडे और सामान भी सब सही जगह पा गए थे. हमने रात का खाना कसबे
में ही ले लिया था. सोमेश हाथ मुंह धोकर आये और खाने के लिए बैठ गए. मैं डर से कुछ
नहीं बोल रही थी.
“मेघा..”
दो घंटे बाद सोमेश कुछ बोले
थे. मैंने बिना जवाब दिए उनकी ओर देखा.
“घर काफी बड़ा है.” वह बोले,
“कई कमरे बंद है. पीछे की तरफ जंगल है. उधर कुछ कमरे भी हैं जो बंद है. वो हमारे
किसी काम के नहीं है. उन्हें मत खोलना. तुम्हें उधर जाने की ज़रूरत भी नहीं है. एक
किचन, एक बाथरूम, एक बेडरूम और ये हॉल. इससे ज्यादा की परवाह करने की ज़रूरत नहीं.”
“ठीक है.” मैंने सर हिलाकर
कहा.
“३ साल पहले सिचाई विभाग के
एक अफसर ने ये ज़मीन खरीदी थी. उन्होंने ही ये घर बनाया. एक दिन उनकी पत्नी को
जंगली सूअरों ने मार दिया. लाश भी नहीं मिली. उन्हें बहुत सदमा लगा. उन्होंने
नौकरी छोड़ दी और न जाने कहाँ चले गए. उनके परिवार वालो ने ये ज़मीन और घर सरकार को
दे दिया. तब से कुछ इक्का दुक्का लोग यहाँ ठहरे है.”
मैं चुपचाप उनकी बात सुनती
रही. कुछ नहीं बोली.
कुछ देर वो भी खामोश रहे.
फिर अचानक से मुझे ऐसा लगा कि जैसे उनका गला भर आया हो.
“बस कुछ दिन, मेघा...” उनकी
आवाज़ भर्रा गयी थी और आँखों के कोरों पर गीलापन भी दिख रहा था, “मैं कल ही जाकर
देखूंगा. दो दिन में अगर सरकारी बंगले का काम ख़त्म नहीं हुआ तो भी हम वहाँ चले
जायेंगे. अगर महीने दो महीने मुश्किल भी हुई तो भी वही पर ‘एडजस्ट’ कर लेंगे... कर
लोगी न?”
मैंने सोमेश का वो रूप कभी
नहीं देखा था. मैं घबरा सी गयी थी. लेकिन मैंने तुरंत खुद को संभालते हुए कहा, “आप
मेरी चिंता बिलकुल मत करिए. मैं यहाँ भी ठीक हूँ और वहा भी ठीक रहूंगी. जब दो
दिनों में यहाँ से ‘शिफ्ट’ कर ही लेना है तो मैं ज्यादा सामान बिखेरुंगी भी नहीं.”
उसके बाद सोमेश कुछ नहीं
बोले. चुपचाप सोने चले गए. मैंने भी किचन साफ़ किया और सोने की तैयारी करने लगी.
सोने से पहले मुझे कुछ पढने
की आदत थी. मुझे याद आया कि मैंने बैग में से किताबे निकाल कर हॉल में ही छोड़ दी
थी. मैं वहाँ गयी और किताबे समेटी. उन्हें लेकर बेडरूम में लौट ही रही थी कि अचानक
हवा में तैरती हुई किसी महिला की एक बेहद हलकी सी आवाज़ सुनाई दी, “.... मुझे यहाँ
से निकालो....” मैंने घूम कर चारो तरफ देखा. यकीन हो गया कि ये मेरा वहम था. मैंने
सर झटक कर बेडरूम की ओर दो तीन कदम बढाए
ही थे कि एक बार फिर से वही आवाज़ सुनाई दी ....” कोई बचाओ.... मुझे यहाँ से निकालो...”
इस बार बिलकुल साफ़ और स्पष्ट. मैं काँप सी गयी. आवाज़ पीछे की तरफ से आ रही थी.
शायद जंगल की तरफ से. मेरे कदम अनायास ही उस तरफ बढे. डर लग रहा था. लेकिन फिर भी
दिल में हौसला था कि सामने वाले कमरे में मेरे पति सो रहे है और उनके रहते मुझे
कुछ नहीं हो सकता. मैं पीछे वाले दरवाज़े को खोलने जा ही रही थी कि....
“मेघा...”
मैं चीख कर पीछे घूमी.
अचानक आई सोमेश की इस आवाज़ ने मुझे पहली वाली आवाज़ से भी ज्यादा डरा दिया था.
सोमेश ख़ामोशी से मेरी ओर देख रहे थे. मेरा दिल पसलियों में धाड़ धाड़ कर रहा था.
काफी कोशिशों के बाद भी मैं खुद पर संतुलन नहीं रख पा रही थी.
“मैंने मना किया था न उधर
जाने के लिए?” सोमेश की आवाज़ बहुत ठंडी थी और डर से जैसे मेरा खून जम गया था.
मैंने बिना कुछ बोले सर झुका दिया.
“चल के सो जाओ.” सोमेश ने
इशारा किया और बैग में से कुछ निकालने लगे.
मैं बेडरूम के दरवाज़े तक
पहुंची और देखा कि सोमेश पीछे वाले दरवाज़े पर ताला लगा रहे थे. फिर उन्होंने हॉल
की सभी आलमारियाँ एक एक कर खोली और कुछ ढूँढने लगे. किचन के पास वाली आलमारी में
शायद उन्हें वह चीज़ मिल गयी जो वह ढूंढ रहे थे. वह एक बड़ी और मोटी सी ज़ंजीर थी.
उन्होंने पीछे वाले दरवाज़े में वह जंजीर लगाकर उसे भी ताले से जकड दिया.
मुझे समझ में नहीं आ रहा था
कि सोमेश गुस्से में थे या परेशान थे या थके हुए थे या... कुछ भी समझ में नहीं आ
रहा था. फिर भी मैं इतना जान गयी थी कि उनकी बात मुझे नहीं काटनी है... मैं चुपचाप
चादर ओढ़ कर सो गयी.
सुबह नींद खुली तो देखा
सोमेश ऑफिस जाने के लिए तैयार हो रहे थे. मैं घबरा कर उठी और किचन में भागी. जल्दी
जल्दी उनका नाश्ता तैयार किया और टेबल पर रखा. सोमेश आये, बैठे और चुपचाप नाश्ता
करने लगे. मैंने घडी देखी. साढ़े आठ बजे थे. जबकि वह कभी १० से पहले नहीं निकलते
थे.
“आज इतनी ज़ल्दी?” मैंने
पूछा.
“अब से यही टाइम है.” सोमेश
बोले.
मुझे लगा जैसे मेरा दम घुट
रहा था. सुबह के नाश्ते के साथ साथ दोपहर और रात का खाना भी कभी सोमेश के कहकहों
के बिना पूरा नहीं होता था. लेकिन... शायद ‘प्रमोशन’ के साथ ‘बोनस’ मिलने वाला काम
का दबाव. मैं मन मसोस के रह गयी.
सोमेश ने चुपचाप नाश्ता
ख़त्म किया और बैग उठाकर चल दिए. मैं हैरान थी. चाहे कितनी भी ज़ल्दी हो, कैसा भी
मूड हो सोमेश मुझे गुडबाय किये बिना ऑफिस नहीं जाते थे. जो भी हो, मैं उनके पीछे
पीछे चल दी. शायद उन्हें याद आ जाए.
मैं उनके पीछे पीछे चलती
रही लेकिन उन्होंने मुड़ के एक बार भी पीछे नहीं देखा. वह मकान के फाटक तक पहुँच गए
थे. तभी अचानक वह पीछे मुड़े और हडबडाहट में मुझे पुकारा जैसे कुछ छूट गया हो,
“मेघा...!”
मैं उनके पीछे ही थी. जल्दी
से उनके सामने आ गयी. उन्होंने एक नज़र मुझे देखा. फिर अचानक उनकी निगाह मेरे पीछे
चली गयी. मुझे ऐसा लगा कि वह मुझे नहीं बल्कि मेरे पीछे खड़े किसी और को देख रहे
थे. मैंने पीछे मुड़कर देखा तो कोई नहीं था. सामने देखा तो सोमेश की निगाह अब भी
वही जमी थी.
“क्या हुआ?” मैंने पूछा.
“कुछ नहीं.” उन्होंने कहा
और टाई ढीली करके निकल गए.
मैं वही खड़ी रह गयी...
कुछ देर तक तो मैं यही
सोचती रही कि अचानक सोमेश को ये क्या हो गया है. लेकिन फिर उसके बाद अपने काम में
रम गयी. नहा धोकर मैंने कसबे की ओर कुछ चहल कदमी करने की सोची.
गली के बाहर निकलते ही खूब
चहल पहल की आवाज़ सुनाई दी जिससे मेरे मन को कुछ शांति मिली. अजीब सा था वो एहसास
भी जब कोलाहल में मुझे सुकून मिला...
यूँ ही सड़क किनारे भटकते -
भटकते मेरी नज़र ताज़ी सब्जियां बेच रही एक बूढी औरत पर पड़ी. मैं उसके पास गयी और
मोल भाव करने लगी, “बैंगन कैसे दिए?”
“१० रुपये.” उसने जवाब
दिया. फिर मेरी ओर देखने लगी.
सब्जियां लेने कि इच्छा
नहीं थी मेरी. फिर जब मैंने देखा कि वो मुझे ही देख रही थी तब मैंने उससे पूछ ही
दिया, “क्या देख रही हो आप?”
“कुछ नहीं.” वह मुस्कुराते
हुए बोली, “आप बाहर की लगती हो.”
मैंने भी हंस कर कहा,
“परसों ही यहाँ आई हूँ. मेरे पति यहाँ सरकारी अफसर है. वह गली के उस छोर वाले मकान
में रहती हूँ.”
“उस छोर वाले मकान में...?”
उसने विस्मित होकर कहा और उसका चेहरा सफ़ेद पड़ गया.
“क्यों? क्या हुआ?” मैंने
सशंकित होकर पूछा. कल तक की सारी घटनाएं मेरे दिमाग में घुमने लगी.
“मेमसाब,” सब्जीवाली बोली,
“कोई तीन साल पहले वहाँ एक साहब रहते थे. अक्सर अपनी पत्नी को मारते पीटते रहते
थे. उस मकान से उनकी पत्नी के रोने और चीखने चिल्लाने की आवाज़े आती रहती थी.
सरकारी अफसर थे इसलिए कोई कुछ नहीं बोलता था. एक दिन उन्होंने अपनी पत्नी को मार
पीट कर एक कमरे में बंद कर दिया और न जाने कहाँ भाग गए.”
“क्या मतलब?” मैंने हैरानी
से कहा, “उनकी पत्नी को तो जंगली सूअरों ने मारा था न?”
“नहीं मेमसाब.” वह बोली,
“उनकी पत्नी के चीखने की आवाज़े कई दिनों तक उस मकान से आती रही.”
“कोई उसे बचाने नहीं
गया...???”
“सब डरते थे. क़ानून से...
सरकारी अफसर का मामला था. कौन ऊँगली उठाता. फिर धीरे धीरे आस पास के घरों के सब
लोग उसके चीखने चिल्लाने से डरकर अपने घरों से भाग गए और दूसरी जगह बस गए...”
“ओह्ह!” मेरा मन आर्द्र हो
गया था, “कितनी तकलीफ में रही होगी बेचारी. और लोग मदद करने के बजाये भाग गए....”
सब्जीवाली ने मेरी ओर देखा
फिर व्यंग्य से बोली, “आप बड़ी भोली है, मेमसाब. एक अँधेरे कमरे में बंद इंसान भला
कितने दिन जिंदा रह सकता है? उसके चीखने चिल्लाने की आवाज़े कई महीनों तक आती
रही... बल्कि कुछ लोग तो कहते हैं कि वो अब भी मदद के लिए चिल्लाती है...”
मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे हाथ
पाँव सुन्न हो गए हो... आँखों के आगे अँधेरा छा रहा था. कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा
था. बार बार कान में वही रात वाली आवाज़ गूँज रही थी “.... बचाओ.... कोई मुझे यहाँ
से निकालो...”
किसी ने मेरे कंधे को
झकझोरा, “मिसेज़ सोमेश?”
मैंने देखा सामने एक भद्र
महिला खड़ी थी. “...ज ... जी...?” मैंने खुद को संभाल कर कहा.
“आप मिसेज़ सोमेश है न?”
महिला ने पूछा.
“जी, आप कौन?” मैंने उसे
पहचाना नहीं था.
“मैं मिसेज़ कमलेश सिंह. हम
दोनों के पति एक साथ काम करते है.” उस महिला ने मुस्कुरा कर कहा.
“ओह्ह! मिसेज़ कमलेश, माफ़
कीजिये मैंने आपको पहचाना नहीं.” मैं ख़ुशी से कहा. मुझे बड़ा सुकून महसूस हो रहा था
कि चलो इस पराए शहर में कोई तो बात करने लायक मिला.
“पह्चानेंगी कैसे?” मिसेज़
कमलेश ने हंसकर कहा, “आपने तो मुझे कभी देखा नहीं. वह तो अगर मैंने आपकी शादी की
तस्वीरे नहीं देखी होती तो भला मैं भी आपको कैसे पहचानती... आइये चलिए. साथ बैठकर
चाय पीते है.”
मिसेज़ कमलेश मुझे अपने साथ
एक छोटे से रेस्तरां में ले गयी. वहाँ एक कोने की मेज पकड़ कर हम बैठ गए और वो मुझे
यहाँ वहां की खूब सारी कहानियाँ सुनाने लगी. लेकिन मेरे मन में उस सब्जीवाली की
बाते ही घुसी हुई थी. मैं चाह कर भी मिसेज़ कमलेश के साथ खुल कर बात नहीं कर पा रही
थी.
“कहाँ खोयी है, मिसेज़
सोमेश?” मिसेज़ कमलेश ने टोका.
मुझे लगा कि अगर मैं उनसे
अपनी परेशानी नहीं बताउंगी तो सब कुछ मेरे दिमाग में घूमता रहेगा. मैंने उन्हें
सारी बाते बता दी.
“ओह्ह! तो ये बात है.”
मिसेज़ कमलेश जोर से हंसी, “आप भी पढ़ी लिखी होकर ऐसी बातों के चक्कर में पड़ गयी? छोटी
सी जगह है और कम पढ़े लिखे लोग है. ये कहानी तो मैंने भी सुनी है. उनकी पत्नी को
जंगली जानवरों ने मारा था. और वो भूतिया मकान नहीं है. कई लोग रह चुके है वहाँ.”
“सच में?” मैंने हैरानी से
पूछा.
“हाँ.” उन्होंने जवाब दिया,
“उनके जो पिछले बॉस थे अखिल बाबु. वो भी वहाँ ५ महीने रहे थे. और इनका एक “कलीग”
विजय, वो तो ८ महीने रहा था. किसी को कुछ नहीं हुआ. मैं खुद भी कई बार वह जगह घूम
कर आ चुकी हु. सूनसान है लेकिन शांत भी है.”
“लेकिन वो आवाज़े?” मेरा मन
सशंकित था.
“मिसेज़ सोमेश...,” उन्होंने
मेरा हाथ पकड़ के तसल्ली देने के अंदाज़ में कहा, “कई बार कुछ कहानियाँ हमारे दिमाग
पर हावी हो जाती है. और हम वहम का शिकार हो जाते है. ३ साल हो गए उस घटना को.
लेकिन आज तक कुछ नही हुआ. सोमेश जी ऑफिस के काम से परेशान है. इसलिए आप शायद अकेली
पड़ गयी है और ये सब महसूस कर रही है. आप चिंता मत करिए. जब भी दिल करे, मेरे घर
चली आया करिए. छोटी जगह है और यहाँ सब मेरे पति को जानते है. किसी से भी पता पूछ
लीजियेगा.”
“बहुत शुक्रिया मिसेज़
कमलेश.” मैंने तहेदिल से उन्हें धन्यवाद दिया.
कुछ देर बैठकर हमने इधर उधर
की बाते की और फिर अपने अपने घर की ओर चल पड़े.
शाम घिरने लगी थी. लौटते
हुए मैंने देखा कि वो सब्जीवाली अपनी दूकान समेट रही थी. मेरा मन हुआ कि उसे जली
कटी सुनाऊ.
“क्यों अम्मा?” मैंने तीखे
स्वर में कहा, “मुझे नयी नयी जानकर बहकाती हो? कई लोग रह चुके है वहाँ लेकिन किसी
को कुछ नहीं हुआ.”
“अखिल बाबु की बीवी गाँव
में थी और विजय बाबु कुंवारे थे. अपनी पत्नी के साथ वहाँ कोई नहीं रहा..”
सब्जीवाली ने जवाब दिया और बिना मेरी ओर देखे अपना सामान उठाकर चली गयी.
मैं अवाक रह गयी. भौचक्की
सी उसे जाते हुए देखती रही. एक साइकिल वाले ने घंटी बजाई तो मेरी तन्द्रा टूटी और
मैं तेज क़दमों से घर की ओर चल पड़ी.
घर जाकर मैंने करीब एक घंटे
तक भगवान् का ध्यान किया और खुद को विश्वास दिलाया कि दिल का वहम तब तक दिमाग पर
हावी नहीं हो सकता जब तक हम न चाहे. फिर मैंने खाना बनाया और सोमेश का इंतज़ार करने
लगी.
रात के नौ बज गए थे लेकिन
सोमेश अभी तक नहीं आये थे. “शायद पहला दिन है इसलिए देरी हो रही है. और बस आज की
ही बात है. कल तो हम सरकारी बंगले में चले जायेंगे..” मैंने खुद को समझाया लेकिन
रात के उस सन्नाटे में खुद को तसल्ली देना इतना आसान नहीं था.
कुछ पल और बीते कि तभी मुझे
हलकी सी आवाज़ सुनाई दी, “.... धप्प...” जैसे किसी ने दरवाज़े पर थाप दी हो. मैं
दौड़कर गयी और दरवाज़ा खोल दिया ये सोचकर सोमेश आ गए होंगे. लेकिन वहाँ कोई नहीं था.
मैंने उदास होकर दरवाज़ा बंद किया और लौट आई.
कुछ देर बाद फिर से सुनाई
दिया “... धप्प...” फिर अचानक आवाज़ तेज़ हो गयी, ....”धप्प... धप्प... धप्प....”
लगा जैसे कोई जोर जोर से दरवाज़ा पीट रहा हो... इससे पहले कि मैं कुछ समझती पूरा घर
गूँज उठा “....धप्प धप्प धप्प धप्प..... मुझे यहाँ से बाहर निकालो... धप्प...
धप्प... कोई है... मुझे यहाँ से बाहर निकालो...”
मुझे लगा जैसे मेरे पैरों
तले ज़मीन खिसक गयी हो. आवाज़ पिछले दरवाज़े से आ रही थी जिसे सोमेश ने ज़ंजीर से बंद
कर दिया था.
“.... मुझे बाहर निकालो...
कोई है.... मुझे निकालो.... धप्प... धप्प...”
बिना कुछ सोचे उतनी रात को
मैं चिल्लाते हुए बाहर भागी. लॉन पार करके फाटक खोला और कसबे की तरफ दौड़ने लगी.
कुछ दूर ही गयी थी कि किसी से टकरा कर गिर पड़ी. चेहरे पर टोर्च की रौशनी पड़ी
“मेघा...”
ये सोमेश थे. मैं उठकर खडी
हुई और उनसे लिपटकर फूट फूटकर रोने लगी.
“ठीक है... ठीक है... कुछ
नहीं हुआ.” सोमेश ने मेरा सर सहलाते हुए कहा, “चलो.
मैं सोमेश को बहुत कुछ
बताना चाहती थी. जो कुछ मैंने देखा... सुना... महसूस किया... लेकिन... मैं उन्हें
कुछ भी नहीं बता पायी....
हम वापस घर में गए. बिलकुल
खामोशी थी. मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि अभी कुछ देर पहले इसी घर में मैंने कान के
परदे फाड़ देने वाली चीख सुनी थी.
सोमेश चुपचाप खाना खा रहे
थे. वह खाकर उठे और सोने चले गये. मुझे लगा कि शायद उस सब्जीवाली की बाते मेरे
दिमाग पर कुछ ज्यादा ही हावी हो गयी थी. मैंने भी चुपचाप खाना खाया और उसके कुछ
देर बाद सोने चली गयी.
अचानक मेरी नींद खुली. रात
के कितने बजे थे पता नहीं. मुझे लगा कि जैसे पलंग के नीचे की लकड़ी को कोई नाखूनों
से खुरच रहा था. मुझे लगा कि शायद चूहे होंगे. मैंने आँखे बंद करके सोने की कोशिश
की, लेकिन खुरचन की आवाज़ तेज़ होती गयी. होते होते वह इतनी तेज़ हो गयी कि मेरे लिए
लेटे रहना भी मुश्किल हो गया. मैं उठी तो देखा कि सोमेश सो रहे थे. बगल में उनका
टॉर्च था. मैंने उनका टॉर्च उठाया और उतरकर पलंग के नीचे झाँका.
वहाँ मैंने जो देखा उससे तो
जैसे मेरी जुबां को लकवा मार गया.
पलंग के नीचे मैंने अपने आप
को देखा. ठीक मेरा ही प्रतिबिम्ब.... दूसरी मेघा बैठी थी मेरे सामने... मैं
चिल्लाना चाहती थी लेकिन गले से आवाज़ नहीं निकली... उस दूसरी मेघा ने मुझे देखा और
मुझे देखते ही सुबक सुबक कर रोते हुए धीरे से बोली, “.... मुझे यहाँ से बाहर
निकालो...”
अपनी ही आवाज़ में खुद को ही
अपने सामने रोते हुए देखकर मैं दहशत में पीछे हटी तो मेरे हाथ से टॉर्च छूटकर गिर
गया... अँधेरा हो गया... मैंने जोर से चिल्लाने की कोशिश की लेकिन आवाज़ गले में
घुंट गयी.... तभी मैंने अपने कंधे पर किसी का हाथ महसूस किया...
“मेघा....”
डर मेरी जान ले लेता अगर
कानो में सोमेश की आवाज़ न पड़ी होती तो. उन्होंने टॉर्च जलाया. मेरी रुलाई निकल
गयी. मैंने हिचकियों के बीच उन्हें बताने की कोशिश की, “वहाँ... प...पलंग के
नीचे...”
“वहाँ कुछ नहीं है, मेघा.”
उन्होंने मेरे आंसू पोछते हुए कहा, “बस आज की रात. कल हम यहाँ से चले जायेंगे.”
मैंने पलंग के नीचे देखा.
कुछ भी नहीं था.
“सो जाओ.’ सोमेश ने सहारा
देकर मुझे सुलाया और थपकियाँ देने लगे.
थपकियाँ देते देते सोमेश
खुद सो गए थे. लेकिन नींद मेरी आँखों से कोसो दूर थी. मुझे विश्वास हो चुका था कि
अब तक जो कुछ भी हुआ था वो मेरा वहम नहीं था....
न जाने कहा से उड़ते उड़ते एक
ख़याल मन में आ गया, “क्या वो अब भी उसी कमरे में बंद है?”
मैं सोचने लगी, “कितनी
तकलीफ हुई होगी उसे... कितना चीखी होगी वो... कितना इंतज़ार किया होगा उसने कि कोई
तो उसकी आवाज़ सुने और उस दरवाज़े को खोल दे...”
और उसके बाद मैं सोचती ही
चली गयी, “अगर मैं वो दरवाज़ा खोल दू, तो शायद वो शांत हो जाए... शायद उसे सुकून
मिल जाए... शायद उसका इंतज़ार ख़त्म हो जाए...”
मैं उठी और सोमेश की आलमारी
के दराज से ज़ंजीर और ताले की चाभी निकाली. टॉर्च उठाकर मैं पिछले दरवाज़े की ओर
बढ़ी. न जाने कहाँ से मुझमें इतनी हिम्मत आ गयी थी. ज़रा सा भी डरे बिना मैंने ज़ंजीर
और ताले को खोला. दरवाज़ा खोलकर मैं आगे बढ़ी तो देखा सच में उधर चार कमरे थे. तीन
कमरे खुले हुए थे जबकि चौथा कमरा बंद था.
मैं उसी कमरे की तरफ बढ़ी और
उस ताले को खोला. वह उसी चाभी से खुल गया जिससे पिछला दरवाज़ा खुला था. जैसे ही मैं
कमरे के अन्दर गयी एक तेज़ बदबू उडी लेकिन अगले ही पल गायब हो गयी. कमरे में सीलन
थी और बस जाले ही जाले थे. बाहर से कमरा छोटा दिख रहा था लेकिन अन्दर से बड़ा था.
मैं उसके काफी अन्दर तक चली गयी.
तभी अचानक खटाक की आवाज़
हुई. मैं पीछे मुड़ी तो देखा कि कमरे का दरवाज़ा बंद हो गया था. फिर ताले और चाभी की
खनखनाहट सुनाई दी.
“नहीं...” मैं चिल्लाकर
भागी, “कौन है? दरवाज़ा खोलो...” मैं दरवाज़ा पीटने लगी.
“मेघा...” सोमेश की आवाज़
सुनाई पड़ी, “मैंने मना किया था न इधर आने के लिए...?”
फिर चाभियों की खनखनाहट
सुनाई दी और सोमेश के कदमो की आवाज़ सुनाई दी जो दूर होती गयी. और अंत में रह गयी
सिर्फ मेरी आवाजें...
तब से लेकर आज तक मैं यही
इसी कमरे में बंद हूँ. सोमेश लौटकर नहीं आये. न जाने कितने दिन, कितने महीने,
कितने साल बीत गए... कुछ दिनो तक खूब भूख और प्यास लगती रही... लेकिन अब भूख प्यास
भी नहीं लगती... अब पहले की तरह डर भी नहीं लगता... बस बाहर निकलना चाहती हूँ... मैं
चिल्लाती रहती हूँ, “.... कोई मुझे यहाँ से बाहर निकालो...” दरवाज़ा पीटती रहती
हूँ, “... धप्प...धप्प...धप्प...” लेकिन कोई नहीं आता... कुछ दिनों पहले कुछ लोगो
की आवाज़े सुनाई दी थी. मैंने जोर जोर से दरवाज़ा पीटना शुरू कर दिया और चिल्लाने
लगी, “...मुझे बाहर निकालो...” लेकिन कुछ ही देर बाद मुझे लोगो के चिल्लाने और
भागने की आवाज़े सुनाई दी... उसके बाद फिर सन्नाटा हो गया.. और तब से आज तक कोई
नहीं आया...
मैं आज भी इसी इंतज़ार में
हूँ कि शायद सोमेश का दिल पिघले और वो वापस आ जाए... या फिर मिसेज़ कमलेश ही मुझे
ढूंढते हुए यहाँ आ जाए... आज भी मैं चिल्लाती रहती हूँ... दरवाज़ा पीटती रहती
हूँ... मैं आज भी इसी इंतज़ार में हूँ कि शायद कोई मेरी आवाज़ सुने और मुझे यहाँ से
बाहर निकाले...
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स्नेहा राहुल चौधरी
२३/०१/२०१५
बेहतरीन.... एक साँस में पढ़ गया
ReplyDeleteपहले लगा कोई भूतिया कहानी है मगर अंत में यह एक बेहतरीन और सार्थक कहानी निकली.
मुबारकबाद और धन्यवाद एक ख़ूबसूरत कहानी के लिए .
Dhanyawaad Rajneesh Sachan Ji :)
ReplyDeleteबहुत उम्दा!
ReplyDeleteशुक्रिया अनुज :)
Deleteबेहतरीन और सार्थक कहानी स्नेह जी पढ़कर बस यही सोच रहा हूँ पहले क्या नहीं आया ब्लॉग पर
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया संजय जी, मुझे भी आपकी प्रतिक्रिया का बेसब्री से इंतज़ार था :)
Deleteo my god...aap kamal likhti hai
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद :)
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