Friday, April 13, 2012

खामखाँ सी ज़िँदगी






खामखाँ उन राहोँ

की रहगुज़र रखना

खामखाँ हर एक

बात की खबर रखना

खामखाँ की बातेँ

खामखाँ के सपने

खामखाँ पराए

लगने लगते हैँ अपने

फिर उनका यूँ बातेँ बनाना

और उसपर भी अंदाज़ शायराना

फिर करके गुस्ताखी

खामखाँ मुस्कुराना

ग़र मुमकिन नहीँ तकदीरेँ बनाना

खामखाँ फिर क्योँ तस्वीरेँ बनाना

शुक्र है खुदा का

हुई न मुलाकातेँ

खामखाँ बढ़ जाती

फिर ये सारी बातेँ

खामखाँ है फिर भी

इनका ज़ेहन मेँ आना

दुखती ज़िँदगी को

खामखाँ फिर दुखाना

हैँ बड़ी ही ये नाज़ुक

खामखाँ दर्द सहेँगी

टूटे सपनोँ की कड़ियाँ

जब आँखोँ को चुभेँगी

खामखाँ रो पड़ेँगी

खामखाँ ऐसी किस्मत

खामखाँ ऐसी चाहत

खामखाँ फिर किस्मत की

इनायत की हसरत

वे कहते हैँ किस्मत को

खामखाँ है सोचना

तकदीर को अपने ही

हाथोँ से तुम लिखना

खामखाँ ये उम्मीदेँ

बढ़ती ही गई

खामखाँ वे न समझे

कि मैँ हूँ वही

खामखाँ बन गई एक

कहानी अनकही हूँ

इक इंसान हूँ मैँ भी

फ़रिश्ता नही हूँ

खामखाँ ये लफ़्ज़

खामखाँ ये ग़ज़ल

खामखाँ सी ज़िँदगी

हो गई है आजकल



- स्नेहा गुप्ता

07/04/2012

09:30 P.M.

2 comments:

  1. बहुत सुंदर रचना.... अंतिम पंक्तियों ने मन मोह लिया...

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  2. बहुत बहुत धन्यवाद संजय जी।

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