खामखाँ उन राहोँ
की रहगुज़र रखना
खामखाँ हर एक
बात की खबर रखना
खामखाँ की बातेँ
खामखाँ के सपने
खामखाँ पराए
लगने लगते हैँ अपने
फिर उनका यूँ बातेँ बनाना
और उसपर भी अंदाज़ शायराना
फिर करके गुस्ताखी
खामखाँ मुस्कुराना
ग़र मुमकिन नहीँ तकदीरेँ बनाना
खामखाँ फिर क्योँ तस्वीरेँ बनाना
शुक्र है खुदा का
हुई न मुलाकातेँ
खामखाँ बढ़ जाती
फिर ये सारी बातेँ
खामखाँ है फिर भी
इनका ज़ेहन मेँ आना
दुखती ज़िँदगी को
खामखाँ फिर दुखाना
हैँ बड़ी ही ये नाज़ुक
खामखाँ दर्द सहेँगी
टूटे सपनोँ की कड़ियाँ
जब आँखोँ को चुभेँगी
खामखाँ रो पड़ेँगी
खामखाँ ऐसी किस्मत
खामखाँ ऐसी चाहत
खामखाँ फिर किस्मत की
इनायत की हसरत
वे कहते हैँ किस्मत को
खामखाँ है सोचना
तकदीर को अपने ही
हाथोँ से तुम लिखना
खामखाँ ये उम्मीदेँ
बढ़ती ही गई
खामखाँ वे न समझे
कि मैँ हूँ वही
खामखाँ बन गई एक
कहानी अनकही हूँ
इक इंसान हूँ मैँ भी
फ़रिश्ता नही हूँ
खामखाँ ये लफ़्ज़
खामखाँ ये ग़ज़ल
खामखाँ सी ज़िँदगी
हो गई है आजकल
- स्नेहा गुप्ता
07/04/2012
09:30 P.M.
बहुत सुंदर रचना.... अंतिम पंक्तियों ने मन मोह लिया...
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद संजय जी।
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