Tuesday, July 19, 2016

पता नहीं...

सोना अपने दोनों पैरो के अंगूठों से फर्श की टाइल्स को बगीचे की घास मानकर कुरेद रही थी. उकडूं बैठकर दुपट्टा का सिरा अपने घुटनों के बीच दबाये वह अपने बाएं हाथ की अंगूठी से खेल रही थी. पूरा लड़कीपना ज़ाहिर था उसका. उसे मालुम था कि लडको को लड़कीपना बहुत भाता है. इसलिए वह इसे दिखाने का कोई मौका नहीं छोडती थी.

पास ही कुछ दूरी पर जतिन भी बैठा था. भरा पड़ा... उसे सोना का ये लड़कीपना बहुत भाता था. वह सोना को इस तरह खुद अठखेलियाँ करते देखते हुए पूरी ज़िन्दगी बिता सकता था, ऐसा उसका मानना था. उसे सोना से बहुत कुछ कहने की इच्छा हो रही थी, हमेशा की तरह. लेकिन हमेशा की तरह वो चुप था.
बगल में रखी चाय की दो खाली प्यालियों की तरह दोनों खामोश थे.

कुछ देर बाद वही हुआ जिसका जतिन को हमेशा से अंदेशा रहा था. सोना खुद ही बोल पड़ी, “जतिन, एक बात पूछूं?

जतिन बोला, “पूछो.”

सोना हिचकिचाई. वह हिचकिचाने की ‘प्रैक्टिस’ कई दिनों से कर रही थी. शायद तब से जब से उसके दिमाग में ये सवाल आया था जिसे पूछने का उसने मन बना लिया था. कुछ देर चुप रहने के बाद, वह बोली, “जतिन, क्या तुम मुझे पसंद करते हो?”

जतिन मानो छूटते ही बोला, “हाँ, करता हूँ. बहुत पसंद करता हूँ तुम्हें, सोना. लेकिन मंजिल मिलेगी या नहीं, पता नहीं.”

सोना को लगा जैसे कुछ सन्न से उसके दिमाग पे लगा. वह सँभालते हुए बोली, “मंजिल क्यों नहीं मिलेगी? हम दोनों के पिताजी इतने अच्छे दोस्त है. पिताजी तुम्हारी बेहद तारीफ़ करते है और तुम्हारी मां भी मुझे इतना चाहती है. फिर...?”

जतिन ने पहले की सी ही उदासी से कहा, “फिर भी, सोना. मुझे भरोसा नहीं किस्मत पर.”

“क्यों?” सोना ने बेचैनी से पुछा.

“पता नहीं.” जतिन का उदासी भरा जवाब था.

कुछ देर के लिए चुप्पी छा गई. सोना ने अपना दुपट्टा ठीक कर लिया था और पालथी मारते हुए एक गाल हाथ पर रखकर बड़े गौर से खाली प्यालियों को निहार रही थी.

कुछ देर बाद वह धीरे से बोली, “हम दोनों की तो ‘कास्ट’ भी ‘सेम’ है. फिर क्या ‘प्रॉब्लम’ होगी?”

जतिन का सीधा जवाब, “पता नहीं...”

सोना कुछ देर चुपचाप बैठी रही. फिर धीरे से उठी और जाने लगी.

जतिन ने रोका, “रुक जाओ, सोना. मां से मिलकर चली जाना.”

“शाम ढलने से पहले घर पहुँच जाना चाहती हूँ.” सोना पलटकर बोलो तो उसकी नज़र फिर से उन खाली प्यालियों पर पड़ी.

“मैं छोड़ दूंगा.” जतिन उठते हुए बोला.

“नहीं. अब अकेली ही जाउंगी.” सोना की आवाज़ में न जाने कहा से एक दृढ़ता आ गई थी. ये लड़कीपना तो बिलकुल नहीं था.

और सोना चली गई अपना लड़कीपना चाय की उन्हीं खाली प्यालियों के पास छोड़कर... उसके चेहरे पर एक अजीब सी मुस्कान थी. उसे क्या मिल गया था.. पता नहीं...


[चित्र: गूगल  से साभार]


-  © स्नेहा राहुल  चौधरी 

7 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (21-07-2016) को "खिलता सुमन गुलाब" (चर्चा अंक-2410) पर भी होगी।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद सर! :)

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  2. शायद उसे अपनेपन का अपने निश्चय का वीश्वास मिल गया था ...
    बहुत अच्छी सकारात्मक कहानी ...

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