Wednesday, May 20, 2015

बॉबी [चैप्टर -1]

रात के करीब डेढ़ बजे थे. वह अपने जूते घिसटता हुआ अपने क़दमों को गिनने की कोशिश कर रहा था. उस वक़्त दिल्ली-आगरा हाईवे रामदयालु-सुल्तानगंज जैसा सुकून तो नहीं दे रहा था पर करकरडूमा-राजीव चौक के शोर शराबे को चुनौती देने की खुली घोषणा ज़रूर कर रहा था. उसकी ली-वाइज़ की जींस कई जगह से उधरी हुई थी. हालांकि भरोसेमंद रही थी उसकी यह ली-वाइज़ की जींस... पिछले कई महीनों से जब से उसकी किस्मत ने उससे खुली जंग छेड़ दी थी, तब से हर मोड़ हर मौके पर उसकी इस जींस ने लोहा लेने में उसका साथ दिया था... ये अलग बात थी कि जिसने वह जींस ‘गिफ्ट’ में दी थी, उसने साथ छोड़ दिया था, लेकिन उस जींस ने उसका साथ नहीं छोड़ा था... माँ कसम पिछले कई महीनों से लगातार घिस रही उस जींस को बेशक अपनी बिरादरी के भाई-बंधुओं की शान-ओ-शौकत पर कई बार रश्क हुआ होगा लेकिन वह भी पक्की नमकहलाल... अर्र माफ़ कीजिये... डिटर्जेंट-हलाल निकली... दरअसल उसकी वह जींस समाजवाद की सच्ची पुरोधा थी. उसने अपने निर्माण के गौरवशाली इतिहास के घमंड में चूर न होकर उसकी दान और दया में मिली हर टी-शर्ट और शर्ट का एकसमान निर्विकार भाव से साथ दिया था. अगर “इंडियाज गाट वफादार” नाम का कोई टैलेंट हंट होता तो यकीनन वह जींस पहला खिताब जीत लाती.



वैसे वफादारी में तो उसके वुडलैंड के जूतों का भी कोई सानी नहीं था. उसे याद था वह दिन, जब साकेत के वुडलैंड शो-रूम में उस खूबसूरत सी सेल्सगर्ल ने इन जूतों की रसीद के पीछे अपना फ़ोन नंबर लिख कर एक हसरत भरी मुस्कराहट के साथ उसे दिया था और कैसे उसने वह नंबर देखकर गर्व के साथ कहा था – “सॉरी डिअर, आई एम् कमिटेड...”

“कमिटेड...”

अचानक रात के उस सन्नाटे में हवा बड़ी तेज़ी से उडी और रास्ते की धूल उसके मुंह पर ज़िन्दगी के एक तमाचे की तरह पुत गयी.
वह भूत से वर्तमान में आ गया था.

करीब दो बज चुके थे. रात के सन्नाटे में पिछले आधे घंटे से पैदल चलता हुआ वास अपने गंतव्य तक पहुँच गया था. पहले बार अपने क़दमों से नज़रे हटाकर उसने रौशनी से नहाए हुए उस बोर्ड को पढ़ा – “बाबूजी दा ढाबा”

वह अच्छी तरह से पहचानता था इस ढाबे को. पिछली बार अपनी हार्ले डेविडसन उसने यही खड़ी थी. बड़ी शान से... इसी ढाबे पर तो उसने यह खोज की थी कि उसे ऑस्कर वाइल्ड नहीं बल्कि नोरा रोबर्ट्स और सोफी किन्सेला पसंद थी. कैसे खिलखिला कर हंसी थी वो जब उसने उसके हैंडबैग में से “आई हैव योर नंबर” निकाली थी.
“तुम मुझे बेवकूफ बना रही थी, आजतक?” प्यार भरी नाराज़गी थी ये.
“और क्या करती?” वह मुस्कुराकर बोली थी, “ज़िन्दगी में वैसे ही इतने सारे गम है. अब अगर तुम्हारी तरह हर चीज़ में परफेक्शन तलाशना शुरू कर दू तो हो गया मेरा बंटाधार. और ऑस्कर वाइल्ड की वे सारी किताबें तो बस तुम्हे इम्प्रेस करने के लिए अपने पास रखती थी...” उसने हौले से अपनी बायीं आँख दबाते हुए कहा था.
“बड़ी चालू हो तुम तो...” उसने प्यार भरी चिकोटी काटी थी उसके गाल पर, “फंसा ही लिया तुमने मुझे अपने जाल में...”

और फिर वो हंसी... जैसे पहाड़ों से गिरती हुई वो नदी होती है न... अल्हड़ सी... ज़िन्दगी से भरपूर... कभी उधर कभी उधर... चहकती हुई सी...
उसने महसूस किया था... कैसे किसी का चहकना... महकना... ज़िन्दगी को जवान बनाए रखता है... आज बमुश्किल तीस का भी नहीं हुआ था लेकिन बेहद बूढा महसूस करता था खुद को...

कितनी अलग थी वो उससे... और कितना अलग था वो उससे... लेकिन न जाने क्या दिख गया था उसे इसमें... उसकी खनकती हुई सी आवाज़ दिन भर की सारी थकान उतार देती थी... उसके नखरे... उसकी फरमाइशें – “सुनो न इशांत...” और एक बार जो ये “सुनो न इशांत” शुरू होता तो फिर ये मुस्कुरा सुनता रहता वो चहक कर सुनाती रहती... दुनिया भर की फरमाइशें जो कभी ख़तम होने का नाम न लेती लेकिन फिर भी उसे यही महसूस होता कि कितना कम मांगती है वो उससे. उसका बस चले तो सारी दुनिया लाकर उसके क़दमों में रख दे...

कितना तरस गया था वो उस आवाज़ को सुनने के लिए... काश, एक बार वो अपनी आवाज़ में उसका नाम पुकार लेती... बस एक बार उसे आवाज़ दे देती तो उसकी ज़िन्दगी का सन्नाटा ख़तम हो जाता...

उसकी आवाज़ तो नहीं, लेकिन सामान से लादे एक ट्रक ने ज़रूर सन्नाटे को भंग किया. उसकी तन्द्रा टूटी तो उसे पता चला कि वह सड़क के बीचोबीच खड़ा था. वह एक तरफ हो गया. ट्रक गुज़र गया. गनीमत थी कि वह नहीं गुज़रा. वैसे तो उसकी ज़िन्दगी में जीने लायक कुछ ख़ास बचा नहीं था लेकिन मरने के बारे में उसने अभी सोचा नहीं था. बस एक अजीब सी उम्मीद थी जो उसे इस ढाबे तक ले आई थी.

जूते घिसटता हुआ वह ढाबे के सबसे छोर पर रखी एक बेंच पर बैठ गया. ढाबे की गहमागहमी थोड़ी कम पड़ गयी थी. एक लड़का बनियान में हाथ पोछता हुआ बाहर निकला और उसकी तरफ आया.

“क्या लेगा साहेब?” लड़के ने पूछा.
वह थोड़ी देर को अचकचा गया. उसने पूरा हिसाब लगाया था कि ढाबे तक पहुँचते पहुँचते उसे इंतज़ार न करना पड़े. लेकिन अब सोचना बेकार था. वह मुसीबत में पड़ चूका था. जेब में फूटी कौड़ी तक नहीं थी. शर्ट से पसीने की बू आ रही थी. और ढाबे वाला खैरात देने के मिजाज़ में तो बिलकुल नहीं लगता था.

“एक गिलास पानी दे, अभी. फिर बताता हूँ” उसने गला साफ़ करते हुए कहा.

लड़के ने ऊपर से नीचे तक उसे गौर से देखा. बाल थोड़े बड़े और बिखरे हुए. बिखरी हुई दाढ़ी और मूछें... कुचैली सी शर्ट और उधरी हुई जींस के साथ बड़े सोल वाले जूते. लड़के को गड़बड़ लगी. वह वहां से खिसका और जाकर मालिक के कान में कुछ कानाफूसी की.

लड़के ने जिस अंदाज़ से घूरा था उससे तो उसने ये अंदेशा लगा लिया था कि कुछ ही देर में ये सब मिलके उसे धक्के मार के निकाल देंगे. इसलिए कोई कुछ कहे इसके पहले ही वह उठने को हुआ. तभी किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए जबरदस्ती वापस बिठा लिया.

“बैठो दोस्त!”
उसने चौंकते हुए उस अजनबी की ओर देखा जो उसे दोस्त कहकर बुला रहा था. आँखों पर रे-बैन टिकाये, हाथ में टाइटन बांधे, नीली टी-शर्ट और डेनिम जींस पहने वह शख्स मुस्कुरा रहा था.
इतने में ढाबे का मालिक भी पहुँच गया. उसने दोनों को घूर कर देखा. डेनिम को देखकर उसे ऐसा लगा जैसे दो दिन पहले की बनी बासी दाल मखनी में किसी ने ताज़ा तड़का लगा कर ऊपर से धनिये की पत्तियाँ डाल दी हो. वही ली-वाइज़ को देखकर उसे ऐसा लगा जैसे बासी बजबजाती पनीर भुर्जी में जी भरकर घी और जीरे की छौंक लगाने के बाद भी उसकी बदबू न गयी हो..

खैर ऐसे दृश्य तो उसकी ज़िन्दगी में रोज़ ही देखने मिलते थे. वह काम-धंधे और बाल-बच्चे वाला आदमी था इसलिए अपने एक दर्जन लठैतों के बावजूद वह आँखे और कान बंद करके काम करता था. जगमगाते ट्यूब-लाइटों की चमचमाती रौशनी में प्रतिदिन और प्रतिरात दमदमाते हुए काम करने के बावजूद जब कभी नजदीकी पुलिस चौकी में किसी अपराधी की शिनाख्त करने के लिए उसे बतौर गवाह बुलाया जाता था तो वह कई मिनटों तक घूरने के बावजूद पहचानने से इनकार कर देता था. उसे बस एक ही बात से मतलब होता था कि बस उसके ढाबे को कोई नुक्सान न हो.
और इन दो लड़कों को देखकर उसे यकीन हो गया था कि इन जमूरों से डरने वाली कोई बात नहीं है.

उस अजनबी ने ढाबे वाले को देखकर तुरंत कहा, “दो कप चाय. और साथ में बिस्किट.”

“ला रे...!” ढाबे वाला चिल्लाया और बिना किसी प्रतिक्रिया के रास्ता बदल के दूसरी ओर चला गया. छोटा लड़का तुरंत चाय लाने दौड़ पड़ा.

“तुम कौन हो?” स्थिति सँभालने पर ली-वाइज़ ने डेनिम से पूछा.

“मैं भगवान् कृष्ण हूँ. मुसीबत में फंसे भक्तों की रक्षा करता हूँ.” डेनिम ने मुस्कुरा कर कहा.

“बकवास बंद करो.” ली-वाइज़ झल्ला गयी.

“अरे गुस्सा मत करो यार! मेरा नाम अक्की है.” अक्की ने बेतकल्लुफी से कहा, “लेकिन सच बताऊ. मुझे ये देखकर दुःख हो रहा कि दुनिया में मैं अकेला सेंस ऑफ़ ह्यूमर का मालिक बचा हूँ. अब मेरी विरासत कौन संभालेगा...?”

शायद मजाक किसी को अच्छा नहीं लगा था. थोड़ी देर के लिए सन्नाटा छा गया.

“चिल यार!” अक्की ने ही शुरुआत की, “यहाँ तुम्हें मुसीबत में देखा तो हेल्प कर दी. दैट्स इट!”

“थैंक्स!” जवाब छोटा और भावहीन था.

“मोस्ट वेलकम. लेकिन बताओ, कि तुम्हारी ऐसी हालत कैसे हो गयी? एक्सेंट से पढ़े लिखे काबिल लगते हो. फिर ये हुलिया क्यों बना रखा है?”

उसने कोई जवाब नहीं दिया.

“नाम क्या है तुम्हारा?” अक्की ने फिर पूछा.

“ईशांत... ईशांत शर्मा.” और आखिरकार ली-वाइज़ ने अपनी पहचान बता ही दी.

अक्की ने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन उसकी निगाहें ईशांत के चेहरे को ऐसे घूर रही थी जैसे कोई बाघ झपट्टा मारने से पहले हिरण के क़दमों की आहट को तोलता है. 

[दूसरी कड़ी यहाँ पढ़े - चैप्टर 2

कहानी की भूमिका यहाँ पढ़े - भूमिका ]

6 comments:

  1. बेहतरीन है। अगले चैप्टर का इंतजार रहेगा

    ReplyDelete
  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (22-05-2015) को "उम्र के विभाजन और तुम्हारी कुंठित सोच" {चर्चा - 1983} पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
    ---------------

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत शुक्रिया सर! आपने मेरी कहानी को चर्चामंच में शामिल करने लायक समझा :)

      Delete
  3. सुंदर पेशकाश...अगले के लिए पेशगी बधाई |!!

    ReplyDelete

मेरा ब्लॉग पढ़ने और टिप्पणी देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.