दिल से .....
कुछ बातें कही हैं दिल से .... कुछ अल्फाज़ छलके है दिल से... कुछ जज़्बात ज़ाहिर है दिल से...
Friday, June 5, 2020
अजी नाम में क्या रखा है...
सन 1981 में मैं फ़ैज़ाबाद के सिविल कोर्ट में लिपिक के पद पर नौकरी कर रहा था. (सिविल कोर्ट कहने में थोड़ा रोब पड़ता है, दरअसल आम ज़बान में उसे कचहरी ही कहते हैं). वहां के बहुत संस्मरण हैं मेरे पास लेकिन आज सिर्फ़ नामों से संबंधित बात ही करूंगा.
Saturday, December 3, 2016
चाँद तन्हा है... - मीना कुमारी
दोस्तों, आज अपनी पसंदीदा ग़ज़ल आपसे सांझा कर रही हूँ...
चाँद तन्हा है आसमाँ तन्हा,
दिल मिला है कहाँ-कहाँ तन्हा
बुझ गई आस, छुप गया तारा,
थरथराता रहा धुआँ तन्हा
ज़िन्दगी क्या इसी को कहते हैं,
जिस्म तन्हा है और जाँ तन्हा
हमसफ़र कोई गर मिले भी कभी,
दोनों चलते रहें कहाँ तन्हा
जलती-बुझती-सी रोशनी के परे,
सिमटा-सिमटा-सा एक मकाँ तन्हा
दिल मिला है कहाँ-कहाँ तन्हा
बुझ गई आस, छुप गया तारा,
थरथराता रहा धुआँ तन्हा
ज़िन्दगी क्या इसी को कहते हैं,
जिस्म तन्हा है और जाँ तन्हा
हमसफ़र कोई गर मिले भी कभी,
दोनों चलते रहें कहाँ तन्हा
जलती-बुझती-सी रोशनी के परे,
सिमटा-सिमटा-सा एक मकाँ तन्हा
[चित्र: गूगल से साभार]
- मीना कुमारी
Thursday, October 13, 2016
समीक्षा : "ख्वाहिशें... कुछ पूरी, तो कुछ अधूरी सी.."
“ख्वाहिशें – कुछ
पूरी, तो कुछ अधूरी सी...” पुलकित गुप्ता लिखित एक समकालीन प्रेम कहानी है. वैसे
देखा जाए तो प्रेम कहानियाँ लिखना न तो पुराने दौर में आसान था और न आज के दौर में
आसान है. इसका मूलभूत कारण है प्रेम कहानियों का नियमित सांचा. हर प्रेम कहानी में
एक नायक होता है और एक नायिका होती है. इनके बीच कभी परिवार या रिश्ते या फिर
परिस्थितियाँ बाधक बनती है. अंत में, या तो मिलन होता है या विरह. ऐसे में किसी भी
लेखक के लिए इस नियमित सांचे के भीतर रहकर एक अलग तरह की प्रेम कहानी लिखना और
पाठकों को मोह लेना मुश्किल होता है. और ये निश्चित ही काबिल-ए-तारीफ़ है कि पुलकित
गुप्ता ‘ख्वाहिशें...” के ज़रिये यह बखूबी कर जाते है.
लेखक का परिचय :
पुलकित पेशे से वकील
तथा सी.एस. हैं. इसके साथ ही वह सी.ए. भी कर रहे है. “गार्गी प्रकाशन” नाम से उनका
अपना एक प्रकाशन संस्थान भी है जिसने उन्हें एक सफल व्यवसायी की पहचान भी दी है.
इतने अभिरूपों के बावजूद वह दिल से लेखक है. सोनीपत में जन्मे और बिजनौर में
पले-बढे पुलकित ने सेंट मेरी कान्वेंट स्कूल से अपनी स्कूली तथा रोहिलखंड
विश्वविद्यालय, बरेली से कॉलेज की पढाई पूरी की.
अपने ख्यालों को
डायरी के पन्नों पर समेटते समेटते एक दिन पुलकित ने अपने विचारों को एक कहानी शक्ल
दे दी जो उनकी पहली किताब “लाइफ एंड प्रोमिसेस’ [अंग्रेज़ी] के रूप में पाठकों के
सामने आई. “ख्वाहिशें” इसी का हिंदी संस्करण है.
ज़िन्दगी को खुलकर
जीने में विश्वास रखने वाले पुलकित को फ़िल्में, संगीत तथा क्रिकेट बेहद पसंद है.
कथानक :
“ख्वाहिशें...” का
कथानक आम प्रेम कहानियों से थोडा हटकर है. वैसे एक आम युवक की यह कहानी भी कॉलेज,
दोस्तों, परिवार, प्रेम तथा करियर के इर्द गिर्द घूमती है लेकिन यहाँ तारीफ़ करनी
होगी लेखक की जिसने इसे महज एक ‘आपबीती’ नहीं बनने दिया. नायक और लेखक की तमाम
समानताओं के बावजूद यह कहानी सच्ची होने का दावा नहीं करती जो इसे और विश्वसनीय
बना देती है.
“ख्वाहिशें...” रचित
की कहानी है जो प्यार और करियर के बीच उलझकर कुछ गलत फैसले ले लेता है और यकीनन
ज़िन्दगी उसे इसकी सजा देने में कोई कसर उठा नहीं रखती. ज़िन्दगी की इस बेदर्दी से
रचित कैसे पार पता है और कैसे अपनी ज़िन्दगी पटरी पे लाता है, “ख्वाहिशें...” इसी
की बानगी है.
पुलकित ने कथानक
काफी संयमित रखा है. किसी भी घटना का अनावश्यक वर्णन नहीं है. फिर चाहे वह प्यार
की बातें हो या दोस्तों के साथ मस्ती, सब कुछ उतना ही है जितना होना चाहिए. कुल
मिलाकर यह कहा जा सकता है कि पुलकित ने अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ाए ज़रूर लेकिन उनकी
लगाम भी ढीली नहीं होने दी.
हालांकि, यह कसी हुई
लगाम कई जगहों पर कहानी की संभावनाओं को कम करती है. रचित और राधिका के प्रेम
संबंधों को थोड़ा और उभारा जा सकता था. दोस्ती की कुछ यादें और जोड़ी जा सकती थी.
पारिवारिक संबंधों में घनिष्टता को दर्शाने के लिए कुछ घटनाक्रम और डाले जा सकते
थे. काफी संभव है कि आज के तेज़ी तथा जल्दीबाजी चाहने वाले युवा पाठकों को ध्यान
में रखते हुए पुलकित ने कथानक को कसा हुआ बना दिया हो. और यकीनन वह इसमें सफल रहे
है.
ये अलग बात है कि जब
कोई चीज़ अच्छी लगती है तो उसका ज़ल्दी ख़त्म हो जाना अच्छा नहीं लगता. मेरे साथ भी
यही हुआ.
कथा संरचना तथा
संवाद :
“ख्वाहिशें...” की
कहानी वार्तालाप से आगे बढती है. इस कहानी के अन्दर भी एक कहानी है जो रचित की
अपनी ज़िन्दगी की कहानी है जिसे वह ख़ुशी को सुना रहा होता है. पूरी कहानी यादों में
कही गयी है. और इसी के अनुसार पुलकित ने अपनी शैली में परिवर्तन किया है. संरचना
अच्छी है “ख्वाहिशें...” की. बीच बीच में डाली गयी कवितायें भी अच्छी लगती है.
“ख्वाहिशें...” एक
अनूदित किताब है. मूल कहानी अंग्रेज़ी में लिखी गयी है. कहीं कहीं कुछ संवादों में
ये अनुवाद ज़ाहिर हो जाता है. और ऐसा महसूस होने लगता है कि यह मूल कहानी नहीं है
बल्कि उसका प्रतिरूप है. मसलन, युवा आमतौर पर बातचीत में अंग्रेज़ी शब्दों का खूब
इस्तेमाल करते है. कुछ संवादों में उन अंग्रेज़ी शब्दों का शुद्ध हिंदी अनुवाद दिया
गया है जो गले नहीं उतरता. हालांकि, यह अलग बात है कि किताब पढने के बाद मूल
संस्करण यानि “लाइफ एंड प्रोमिसेस..” पढने की प्रबल इच्छा हो जाती है. हो सकता है
कि अनुवाद का यही उद्देश्य रहा हो और अगर यह सच है तो यकीनन पुलकित की अनुवाद टीम
इसमें सफल रही है.
चरित्रांकन :
पुलकित ने “ख्वाहिशें...”
में चरित्रों की भीडभाड़ नहीं होने दी है. किरदार कम होने के कारण उनके विकास को
अवसर मिलता है और उनके व्यक्तित्व के कई रंग उभर कर आते है.
रचित कहानी का नायक
है. वह एक आम युवा है. करियर, परिवार, दोस्ती तथा प्यार को लेकर उसके सपने किसी आम
मध्यमवर्गीय युवक जैसे ही है. वह कोई सुपर हीरो नहीं है. परिस्थितियों में उलझकर
वह कुछ गलत फैसले ले लेता है जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ता है. पुलकित ने रचित
के माध्यम से एक सन्देश देने की कोशिश की है कि किस तरह कभी कभी हम अपनी
परेशानियों को खुद पर हावी करके इस कदर उलझे रहते है कि इसकी कीमत पर हमारे
रिश्तों की बलि चढ़ जाती है. रचित की गलतियां काफी कुछ सोचने पर मजबूर कर देती है.
पुलकित की तारीफ़ करनी होगी कि एक महत्वपूर्ण सन्देश देने के बावजूद उन्होंने कहानी
को उपदेशक बनने से बचा लिया है.
राधिका कहानी की
नायिका है. वह खुबसूरत, मासूम, पढाई में तेज़ और भावुक है. रचित ने जिस तरह से उसका
वर्णन किया है उससे मुझे अचानक ही फिल्म “अंखियों के झरोखे से” की लिली फ़र्नान्डिस
याद आ गयी जिसे रंजीता ने अपनी अदाकारी से जीवंत कर दिया था. हालांकि, समझदारी के
पैमाने पर राधिका मुझे पिछड़ती हुई लगी. तमाम मुश्किलों और परेशानियों का सामना करते
हुए एक मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की देश के एक बेहद प्रतिष्ठित संस्थान में दाखिला
लेती है. पढ़ाई में अव्वल और दोस्तों तथा परिवार की लाडली होने के बावजूद जीवन में
आये भावनाओं के ज्वार को संभाल नहीं पाती और बिखर जाती है. मुझे निजी तौर पर मजबूत
स्वभाव इरादों वाली लडकियां पसंद है. इसलिए राधिका जैसी तेज़ लड़की का यूँ अपनी
ज़िन्दगी तबाह कर लेना अच्छा नहीं लगा. दरअसल पुलकित ने राधिका के किरदार को रचित की
गलतियों की कसौटी के तौर पर गढा है. इसलिए उसका ऐसा व्यक्तित्व होना लाजिमी लगता
है.
ख़ुशी “ख्वाहिशें...’
का एक ऐसा किरदार है जो नायिका न होने के बावजूद दिलों पर छा जाती है. कई बारगी तो
ख़ुशी का किरदार बाकी किरदारों को भी ढँक लेता हुआ सा प्रतीत होता है. ख़ुशी के
किरदार का रहस्य उसे और भी खुबसूरत बना देता है. ख़ुशी के रेखांकन में यकीनन पुलकित
की लेखन शैली अपने चरम पर पहुंची है. यह एक ऐसा किरदार है जिसके लिए पुलकित बधाई
के पात्र है. जय, तेजा, रचित के पिता तथा भाई इत्यादि भी अपने छोटे सांचे में
महत्वपूर्ण बन पड़े है और प्रभावित करते है.
कुल मिलाकर यह कहा
जा सकता है कि “ख्वाहिशें...” एक प्रेम कहानी के ज़रिये जीवन का अक्सर महसूस न हो
पाने वाला महत्वपूर्ण सन्देश देती है. इसे लिखा तो गया है युवा पाठक वर्ग को ध्यान
में रखकर लेकिन समकालीन प्रेम कहानियों में रूचि रखने वाले सभी आयु वर्ग के लोग
इसे निश्चित ही पसंद करेंगे.
Friday, October 7, 2016
मन्नत
मिसेज शर्मा परेशान थी.
सुबह से शाम होने को आई लेकिन उनकी परेशानी ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही थी. आज नवरातों
की अष्टमी थी. उन्होंने इस साल इक्कीस कन्याएं जिमाने की मन्नत मानी थी. लेकिन तमाम
कोशिशों के बावजूद कन्याएं इकट्ठी नहीं जुट पा रही थी. कुछ साल पहले तक तो कन्याएं
खुद ही कॉलोनी के घरों में और आस-पास की सोसाइटीयों में घूमती फिरती थी. अब न जाने
क्या हो गया था?
मिसेज शर्मा पूरी कोशिश कर
रही थी कि उनके मुंह से कोई गलत बात न निकले. लेकिन जब मिस्टर शर्मा पास की ‘अप्सरा
सोसाइटी’ से भी अकेले मुंह लटकाए लौट आये तो उनके मुंह से न चाहते हुए भी निकल
गया, “क्या हो गया इन मुइयों को? पहले घर-घर छिटकती थी. आज ढूंढें न मिल रही...’
मिस्टर शर्मा घबरा कर बोले,
“राम राम! ऐसा न कहो. नवरातों में लडकियां मां का रूप हो जाती है. अरे आज के दिन
तो हर घर में कन्या जीमती है न. इसलिए इक्कीस कन्याएं एक साथ आनी मुश्किल हो जाती
है. दो तो अपने ही घर में है और पांच-सात तो अपने पड़ोस में है ही. मैंने दो-तीन
घरों में और कन्याओं को देखा था. सबको बोल दिया आने को. आ जायेंगी शाम होने से
पहले. तुम बस तैयारी पूरी रखो.”
मिस्टर शर्मा की बात सुन मिसेज
शर्मा को थोड़ी राहत मिली और वह थोडा सहज होकर बोली, “इसी को कहते है देवी माँ बिना
परीक्षा लिए कोई मन्नत पूरी नहीं होने देती. और साल देखिये, मन्नत न होती थी तो
समय से कन्या जिमा लेते थे. इस साल मन्नत है तो सुबह से घर के सारे ‘मरद मानुष’
भूखे बैठे है और अभी तक कन्याओं के दर्शन भी ना हुए है.”
“हो जाएगा... हो जाएगा...
चिंता न करो...” मिस्टर शर्मा ने दिलासा देते हुए कहा.
कुछ वक़्त और बीता. दिया
बाती की बेला आने को थी. मिसेज शर्मा घबराकर बाहर दरवाजे की तरफ बढ़ने लगी. तभी
उन्हें एक दूसरे के हाथों में हाथ डाले हंसती हुई करीब १०-११ कन्याएं आती दिखाई
दी. छोटी छोटी बच्चियां माता का रूप धरे अपनी चुनरियाँ संभालती हुई खिलखिलाती चली
आ रही थी. मिसेज शर्मा हुलसते हुए अन्दर गयी और बहु को आवाज़ लगायी, “सुनीता, आसन
लगाओ. माताएं आ रही है.” और फिर उसी तेज़ी से वापिस बाहर गयीं ताकि कन्याओं को
अन्दर ला सके.
लेकिन इससे पहले कि कन्याएं
मिसेज शर्मा के घर पहुँचती, पड़ोस के घर से मिश्राजी का बेटा निकला और सभी कन्याओं
को एक-एक चॉकलेट पकड़ाता हुआ अन्दर ले गया. लडकियां उछलती कूदती उसके साथ चली गयी.
मिसेज शर्मा सर पकड़ के बैठ
गयी. अचानक से उनका गला भर आया और वह सोचने लगीं, “माता कितनी परीक्षा लोगी? भरी
घर पोतियाँ है. अब बस पोते की मन्नत पूरी करवा दो... और कुछ न चाहिए, माता...”
[चित्र: गूगल से साभार]
- © स्नेहा राहुल चौधरी
Thursday, September 29, 2016
हे गुलअफशां कहां गयी...
बिहार की संस्कृति में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है बिहार की लोक कथाएँ. सबसे ख़ास बात यह है कि इन लोक कथाओं में सम्प्रदाय की कोई महत्ता नहीं होती. ये कथाएँ बस कथाएँ होती है. उन्ही में से एक है गुलअफशां की कहानी...
गुलअफशां की कहानी फूलो ने कही थी. इसलिए उसका नाम गुलअफशां पड़ा. गुलअफशां यानी गुलो का अफ़साना यानी वो अफ़साना जो गुलो ने कहा. गुलअफशां गुलिस्तान की शहजादी थी. कहा जाता है की वह जहां भी जाती थी वहाँ फूल खिल जाते थे. वह जिस बाग़ में जाती थी उस बाग़ के मुरझाये हुए फूल भी खिल जाते थे. उसके महल के फूल कभी नहीं मुरझाते थे.
एक सुबह गुलअफशां अन्धेरा रहते ही महल से एक बाग़ की ओर चल पड़ी. महल के सैनिको ने उससे पूछा कि वह कहाँ जा रही है तो उसने जवाब दिया कि वह ज़ल्द ही लौट आएगी.
लेकिन गुलअफशां कही नहीं मिली...
फिर बादशाह ने मुनादी करवा दी कि जो कोई गुलअफशां को ढूंढ कर लाएगा उससे गुलअफशां का निकाह कर दिया जाएगा और आधा गुलिस्तान दे दिया जाएगा [ जैसा कि हर लोक कथा में होता है]. यह मुनादी सुनकर कई लोग गुलअफशां की खोज में निकले लेकिन कोई भी उसे खोज नहीं पाया.
अब ये गुलअफशां के फूल कहाँ खिलते है और कहाँ मिलते है ये तो मुझे पता नहीं लेकिन कहा जाता है की गुलअफशां के फूल कभी नहीं मुरझाते...
गुलअफशां की कहानी फूलो ने कही थी. इसलिए उसका नाम गुलअफशां पड़ा. गुलअफशां यानी गुलो का अफ़साना यानी वो अफ़साना जो गुलो ने कहा. गुलअफशां गुलिस्तान की शहजादी थी. कहा जाता है की वह जहां भी जाती थी वहाँ फूल खिल जाते थे. वह जिस बाग़ में जाती थी उस बाग़ के मुरझाये हुए फूल भी खिल जाते थे. उसके महल के फूल कभी नहीं मुरझाते थे.
[चित्र: गूगल से साभार]
एक सुबह गुलअफशां अन्धेरा रहते ही महल से एक बाग़ की ओर चल पड़ी. महल के सैनिको ने उससे पूछा कि वह कहाँ जा रही है तो उसने जवाब दिया कि वह ज़ल्द ही लौट आएगी.
महल से कुछ दूर एक बाग़ था. गुलअफशां वही चली गयी. उस बाग़ के बहुत सारे फूल मुरझा गए थे. जैसे ही गुलअफशां वहाँ पहुंची, उस बाग़ के सारे फूल खिल गए. यह देख कर गुलअफशां बहुत खुश हुई. वह काफी देर तक बैठ कर फूलो से बतियाती रही. जब शाम होने को आई और गुलअफशां चलने को हुई तब वो सारे मुरझाये हुए फूल जो गुलअफशां के आने से खिल गए थे, फिर से मुरझाने लगे. यह देख सारे फूल डर गए. उन्होंने सोचा कि कितना अच्छा हो यदि गुलअफशां इस बाग़ से जा ही न सके. यही सोचकर उन फूलो ने गुलअफशां को खुद में क़ैद कर लिया.
जब रात ढले भी गुलअफशां घर नहीं पहुंची तो बादशाह ने अपने सैनिको से पूछा. सैनिको ने जवाब दिया कि गुलअफशां ने उन लोगो से कहा था कि वह ज़ल्दी ही लौट आएगी. यह सुनकर बादशाह ने खोजी दस्ते चारो दिशा में दौड़ा दिए. हर खोजी दस्ता गुलअफशां को आवाज़ लगाता हुआ जाता - "हे गुलअफशां कहा गयी, तीरनछोड़ [ तीरनछोड़ यानी जो तीर छोड़ते है यानी सैनिक] को कहे गयी... हे गुलअफशां कहाँ गयी, तीरनछोड़ को कहे गयी..."
लेकिन गुलअफशां कही नहीं मिली...
फिर बादशाह ने मुनादी करवा दी कि जो कोई गुलअफशां को ढूंढ कर लाएगा उससे गुलअफशां का निकाह कर दिया जाएगा और आधा गुलिस्तान दे दिया जाएगा [ जैसा कि हर लोक कथा में होता है]. यह मुनादी सुनकर कई लोग गुलअफशां की खोज में निकले लेकिन कोई भी उसे खोज नहीं पाया.
एक बार एक शहजादा गुलअफशां की खोज में निकला. वह सबसे पहले गुलिस्तान पहुंचा. वहाँ उसने सबसे बड़े चित्रकार को बुलाकर गुलअफशां की तस्वीर बनवाई. उसने गुलअफशां बारे में सारी जानकारी इकट्ठी की और उसकी खोज में चल पड़ा. चलते चलते वह गुलअफशां को आवाज़ देता जाता - "हे गुलअफशां कहां गयी, तीरनछोड़ को कहे गयी..." साथ ही वह गुलअफशां की तस्वीर को भी अपने सीने से लगाए रहता. उसे गुलअफशां से मुहब्बत हो गयी थी.
चलते चलते शहजादा उसी बाग़ में पहुँच गया जहा गुलअफशां को फूलो ने क़ैद करके रखा था. शहजादा गुलअफशां की याद में बिलकुल बेचैन हो गया. उसे लगा कि अब उसे गुलअफशां कभी नहीं मिलेगी. गुलअफशां की याद में उसे होश नहीं रहा और वह बेहोश होकर ठीक उन्ही फूलो की जड़ के पास गिर पड़ा जिनमे गुलअफशां क़ैद थी. बेहोशी कि हालत में ही शहजादे की आँखों से आंसू बह निकले. क्यूंकि ये आंसू शहजादे की पाक मुहब्बत का सबूत थे, उन्ही आंसुओ से वे जंजीरे गल गयी जिनसे गुलअफशां को बाँधा गया था. ज़ंजीरो के गलते ही गुलअफशां फूलो की क़ैद से आज़ाद हो गयी.
गुलअफशां ने जब बेहोश शहजादे को देखा तो वह समझ गयी कि इसी शहजादे ने उसे क़ैद से छुडाया है. उसने शहजादे की आँखों पर हाथ फिराया तो शहजादे को होश आ गया. गुलअफशां को अपने सामने देखकर शहजादे की ख़ुशी का ठिकाना न रहा. वह गुलअफशां को अपने घोड़े पर बिठाकर चलने को तैयार हुआ. जैसे ही गुलअफशां बाग़ से जाने को तैयार हुई, वैसे ही बाग़ के सारे फूल मुरझाने लगे. यह देखकर गुलअफशां को दया आ गयी. उसने सोचा की आखिर फूलो की भी तो इच्छा थी की वे हमेशा खिले रहे. गुलअफशां इतनी नेकदिल थी की उसने उसी वक़्त उन फूलो के हमेशा खिले रहने की दुआ खुदा से मांगी. खुदा ने नेकदिल गुलअफशां की दुआ कबूल की. शहजादा गुलअफशां को लेकर वापस गुलिस्तान चला गया.
उस बाग़ के फूल फिर कभी नहीं मुरझाएं और उन्हें गुलअफशां के फूलो के नाम से ही जाना जाने लगा.
अब ये गुलअफशां के फूल कहाँ खिलते है और कहाँ मिलते है ये तो मुझे पता नहीं लेकिन कहा जाता है की गुलअफशां के फूल कभी नहीं मुरझाते...
[चित्र: गूगल से साभार]
Monday, September 26, 2016
लड्डू वाली कहानी
दोस्तों नमस्कार,
आज एक लोक कथा लेकर प्रस्तुत हूँ. यह एक भोजपुरी लोक कथा है जिसका मैं हिंदी रूपांतरण प्रस्तुत कर रही हूँ.
एक सेठ जी थे. उनका लड्डूओं का कारोबार था. उनके लड्डू दूर दूर तक मशहूर थे. उन्होंने एक साधारण लड्डू वाले की हैसियत से अपना काम शुरू किया था लेकिन उनकी उनकी कारीगरी और बनाए हुए बेहतरीन लड्डूओं की बदौलत उनका काम बढ़ता चला गया और उनकी गिनती रईसों में होने लगी. फिर भी वे बड़े ज़मीनी आदमी थे और दौलत का नशा उनपर नहीं चढ़ पाया. सेठ जी के चार लड़के थे. उन्होंने अपने चारो लडको को लड्डू बनाने की कला में पारंगत कर रखा था. बेटे भी पिता के नक्शेकदम पर चल रहे थे.
सेठ जी की एक आदत थी. अक्सर वह लड्डू बाँधने का काम करने वक़्त गुनगुनाया करते थे - "लड्डूआ लड़ें तो बुंदिया झड़ें... बुंदियाँ झड़ें तो लड्डूआ मरे...."
सेठ जी की देखा देखी उनके सारे नौकर और उनके लड़के भी यह गीत अक्सर गुनगुनाते रहते थे. सेठ जी यह देख देख कर मुस्कुराते थे. यह अलग बात थी कि इसका मतलब कोई नहीं जानता था.
एक दिन सेठ जी ने तीर्थ करने की सोची. उन्होंने अपने चारो लडको को बुलाया और उन्हें समझाया - "मैं तीर्थ करने जा रहा हूँ. मेरे पीछे घर और कारोबार का ध्यान रखना. और चाहे कितना भी कुछ भी क्यों न हो जाए. आपस में मेल रखना और दुसरो की बात पर कान मत देना."
यह कहकर सेठ जी चले गए.
सेठ जी के जाने के बाद लडको ने खूब अच्छे से सब कुछ संभाला. चार जनों ने मिलकर काम किया तो कारोबार और भी बढ़ने लगा. यह देखकर उन्होंने अपना काम बाँट लिया कि दो भाई लड्डू बनायेंगे और दो भाई हिसाब किताब करेंगे. कुछ दिन तो सब ठीक चला लेकिन चारो में काम को लेकर तनातनी होने लगी. लड्डू बनाने वाले भाइयों ने सोचा कि सारा काम तो हम करते है और ये तो बस किताब कलम लेकर सारा दिन गद्दी तोड़ते है. हिसाब किताब करने वाले भाइयों ने सोचा कि सारा काम तो हम करते है - माल पहुँचाना, बिक्री का हिसाब रखना, मोल जोल करना. ये दोनों तो बस मजे से लड्डू बनाते है. आधा खाते है आधा दूकान पर पहुंचाते है.
बात बढ़ी, लड़ाई झगडे तक पहुँच गयी. मार पीट हुई और सबने गुस्से में काम धंधा बंद कर दिया. फैसला हुआ कि पिता के तीर्थ से लौटते ही बंटवारा कर लिया जाएगा.
काम ठप्प हुआ तो ग्राहक भी बिखरने लगे. अच्छा ख़ासा कारोबार बर्बाद होने लगा.
चारों एक दिन इसी तरह बैठकर मक्खी मारते हुए बंटवारे का इंतज़ार कर रहे थे. कि अचानक सबसे छोटे भाई को पिता का गाया हुआ गीत याद आया - "लड्डूआ लड़ें तो बुंदियाँ झड़ें.... बुंदियाँ झड़ें... तो लड्डूआ मरें..."
छोटे भाई को गाते देख बाकी भाई भी सुर मिलाने लगे. तभी अचानक बड़े भाई ने सोचा कि आखिर पिताजी यह गीत हमेशा क्यों गाते थे. उसने अपने भाइयो से इस बाबत पूछा. जब भाइयों ने गीत के बोलों पर ध्यान दिया तब जाकर उन्हें इस गीत की महत्ता समझ में आई - 'लड्डूआ लड़ें ... तो बुंदियाँ झड़ें...' मतलब जब लड्डू आपस में लड़ते है यानि टकराते है तो बूंदी झड़कर गिरती है. 'बुंदियाँ झड़ें तो लड्डूआ मरें...' मतलब लड्डू बूंदी से ही बनते है और जब आपस में टकराने के कारण बूंदी झडती है तो इससे उनका खुद का विनाश होता है. और इसतरह लड्डू बर्बाद हो जाते है.
अब जाकर भाइयों के समझ में आया कि उनके पिताजी गीत के ज़रिये ही उन्हें मिल जुल कर रहने की सीख देते थे. उन्हें अपनी गलती पर बहुत शर्मिंदगी हुई. उन्होंने फिर कभी आपस में न लड़ने की ठानी और उसी वक़्त कामकाज दुबारा शुरू कर दिया. सेठ जी के लौटने तक कारोबार फिर से पहले जैसा हो गया. और सेठ जी लौटकर अपने बेटो का आपस में प्रेम देखकर गदगद हो उठे.
~ लोक कथाओं के माध्यम से नैतिक शिक्षा देना हमारे समाज की परंपरा रही है. यह लोक कथा उसी का एक हिस्सा है. ~
आज एक लोक कथा लेकर प्रस्तुत हूँ. यह एक भोजपुरी लोक कथा है जिसका मैं हिंदी रूपांतरण प्रस्तुत कर रही हूँ.
एक सेठ जी थे. उनका लड्डूओं का कारोबार था. उनके लड्डू दूर दूर तक मशहूर थे. उन्होंने एक साधारण लड्डू वाले की हैसियत से अपना काम शुरू किया था लेकिन उनकी उनकी कारीगरी और बनाए हुए बेहतरीन लड्डूओं की बदौलत उनका काम बढ़ता चला गया और उनकी गिनती रईसों में होने लगी. फिर भी वे बड़े ज़मीनी आदमी थे और दौलत का नशा उनपर नहीं चढ़ पाया. सेठ जी के चार लड़के थे. उन्होंने अपने चारो लडको को लड्डू बनाने की कला में पारंगत कर रखा था. बेटे भी पिता के नक्शेकदम पर चल रहे थे.
सेठ जी की एक आदत थी. अक्सर वह लड्डू बाँधने का काम करने वक़्त गुनगुनाया करते थे - "लड्डूआ लड़ें तो बुंदिया झड़ें... बुंदियाँ झड़ें तो लड्डूआ मरे...."
सेठ जी की देखा देखी उनके सारे नौकर और उनके लड़के भी यह गीत अक्सर गुनगुनाते रहते थे. सेठ जी यह देख देख कर मुस्कुराते थे. यह अलग बात थी कि इसका मतलब कोई नहीं जानता था.
एक दिन सेठ जी ने तीर्थ करने की सोची. उन्होंने अपने चारो लडको को बुलाया और उन्हें समझाया - "मैं तीर्थ करने जा रहा हूँ. मेरे पीछे घर और कारोबार का ध्यान रखना. और चाहे कितना भी कुछ भी क्यों न हो जाए. आपस में मेल रखना और दुसरो की बात पर कान मत देना."
यह कहकर सेठ जी चले गए.
सेठ जी के जाने के बाद लडको ने खूब अच्छे से सब कुछ संभाला. चार जनों ने मिलकर काम किया तो कारोबार और भी बढ़ने लगा. यह देखकर उन्होंने अपना काम बाँट लिया कि दो भाई लड्डू बनायेंगे और दो भाई हिसाब किताब करेंगे. कुछ दिन तो सब ठीक चला लेकिन चारो में काम को लेकर तनातनी होने लगी. लड्डू बनाने वाले भाइयों ने सोचा कि सारा काम तो हम करते है और ये तो बस किताब कलम लेकर सारा दिन गद्दी तोड़ते है. हिसाब किताब करने वाले भाइयों ने सोचा कि सारा काम तो हम करते है - माल पहुँचाना, बिक्री का हिसाब रखना, मोल जोल करना. ये दोनों तो बस मजे से लड्डू बनाते है. आधा खाते है आधा दूकान पर पहुंचाते है.
बात बढ़ी, लड़ाई झगडे तक पहुँच गयी. मार पीट हुई और सबने गुस्से में काम धंधा बंद कर दिया. फैसला हुआ कि पिता के तीर्थ से लौटते ही बंटवारा कर लिया जाएगा.
काम ठप्प हुआ तो ग्राहक भी बिखरने लगे. अच्छा ख़ासा कारोबार बर्बाद होने लगा.
चारों एक दिन इसी तरह बैठकर मक्खी मारते हुए बंटवारे का इंतज़ार कर रहे थे. कि अचानक सबसे छोटे भाई को पिता का गाया हुआ गीत याद आया - "लड्डूआ लड़ें तो बुंदियाँ झड़ें.... बुंदियाँ झड़ें... तो लड्डूआ मरें..."
छोटे भाई को गाते देख बाकी भाई भी सुर मिलाने लगे. तभी अचानक बड़े भाई ने सोचा कि आखिर पिताजी यह गीत हमेशा क्यों गाते थे. उसने अपने भाइयो से इस बाबत पूछा. जब भाइयों ने गीत के बोलों पर ध्यान दिया तब जाकर उन्हें इस गीत की महत्ता समझ में आई - 'लड्डूआ लड़ें ... तो बुंदियाँ झड़ें...' मतलब जब लड्डू आपस में लड़ते है यानि टकराते है तो बूंदी झड़कर गिरती है. 'बुंदियाँ झड़ें तो लड्डूआ मरें...' मतलब लड्डू बूंदी से ही बनते है और जब आपस में टकराने के कारण बूंदी झडती है तो इससे उनका खुद का विनाश होता है. और इसतरह लड्डू बर्बाद हो जाते है.
अब जाकर भाइयों के समझ में आया कि उनके पिताजी गीत के ज़रिये ही उन्हें मिल जुल कर रहने की सीख देते थे. उन्हें अपनी गलती पर बहुत शर्मिंदगी हुई. उन्होंने फिर कभी आपस में न लड़ने की ठानी और उसी वक़्त कामकाज दुबारा शुरू कर दिया. सेठ जी के लौटने तक कारोबार फिर से पहले जैसा हो गया. और सेठ जी लौटकर अपने बेटो का आपस में प्रेम देखकर गदगद हो उठे.
~ लोक कथाओं के माध्यम से नैतिक शिक्षा देना हमारे समाज की परंपरा रही है. यह लोक कथा उसी का एक हिस्सा है. ~
Friday, September 23, 2016
उन दिनों की प्रेम कहानी...
ये उन दिनों की कहानी है जब
प्यार एसएमएस और इन्टरनेट का मोहताज नहीं हुआ था. तब परदेस में कमाने वाले पतियों
की घर संभालने वाली अपनी पत्नियों के साथ बगैर किसी लोचे के “लॉन्ग डिस्टेंस
रिलेशनशिप” निभती थी. उस ज़माने में आँखें बाकायदा चार हुआ करती थी. इस गंभीर वाले
अनबोले प्यार से इतर हाई स्कूल और कॉलेज वाला प्यार भी खूब प्रचलित हुआ करता था.
आइसक्रीम की डंडियाँ “फर्स्ट फ्लाइट कूरियर” से भी सरपट प्रेमपत्र पहुंचाने का काम
करती थी.
ये उस वक़्त की कहानी है जब सारी
दुनिया से लताड़े जाने के बावजूद प्यार में खूब मासूमियत बची थी और ये अपने भोलेपन
के साथ लड़के लड़कियों की ज़िन्दगी को सपनीला बनाने के काम में मुस्तैदी के साथ जुटा
था.
अपनी ये लड़की उसी जमाने की थी. तो कहानी कुछ यूँ शुरू हुई कि उसके माँ बाप ने उसकी जिद्द के आगे झुककर उसे एक साइकिल खरीद कर दी. लड़की उसी से कॉलेज आने जाने लगी. फिर एक दिन खुद को सायरा बानो बूझते हुए वह “मैं चली मैं चली देखो प्यार की गली...” गुनगुनाते हुए जा रही थी. आमतौर पर कहानियों में लड़का लड़की से टकराता है. लेकिन यहाँ पर अपनी इस लड़की ने ही सामने से आते एक लड़के की साइकिल को ठोक दिया. आमतौर पर इसके आगे यूँ होता कि लड़की आँखें तरेरते हुए लड़के की खूब खबर लेती और लड़का कुछ कुछ फ़िल्मी से अंदाज़ में माफ़ी मांगता. पर यहाँ हुआ ठीक उल्टा. लड़की घबरा गयी और फ़ौरन साइकिल से उतरते हुए खुद ही लड़के को “सॉरी” बोल पड़ी. लड़का कहना तो बहुत कुछ चाहता था लेकिन उसका घबराया हुआ चेहरा देखकर शांत हो गया और कुछ न बोला. लड़की चुपचाप साइकिल लेकर घर की तरफ चल पड़ी. उसे ये बिलकुल भी मालुम न चला कि लड़का चोरी चोरी धीरे धीरे पैडल मारता हुआ उसके घर का रास्ता देख रहा है. खैर, लड़की अपने घर सही सलामत पहुँच गयी और लड़के ने उसकी गली को याद कर लिया.
कहानी यहाँ से शुरू होती है.
उसके बाद लड़की ने कई बार उस लड़के को अपनी गली में देखा. वह उसे देखकर घबरा जाती थी. उसे डर था कि कही वह लड़का उसके पापा से उसकी शिकायत करने तो नहीं आया. या फिर शायद उसकी साइकिल का कोई अंजर पंजर टूट गया था जिसकी कीमत वसूलने आया हो. लेकिन ऐसा कुछ न हुआ. लड़का बस उस गली के चक्कर लगाता और लड़की से नज़रे टकराने पर मुस्कुरा देता. लड़की बड़ी भोंदू थी. कुल मिलाकर ४३ चक्करों के बाद उसे लड़के की मंशा समझ में आई और यह सोचकर ही उसके गाल लाल हो उठे. तो जब लड़का अगले चक्कर के वक़्त उसे देखकर मुस्कुराया तो वह भी मुस्कुरा दी. लड़के की तो बल्लियाँ उछलने लगी. प्रेम दोतरफा जो हो गया था. उसके बाद लड़का जब भी चक्कर लगाता तो “तुझको पुकारे मेरा प्यार...” गाता हुआ निकलता तो लड़की उसकी आवाज़ सुनते ही कभी कथरियाँ सुखाने तो कभी देहरी से आवारा कुत्तो को भगाने के बहाने बाहर निकलती. दोनों एक दुसरे को देखते. लड़का मुस्कुराता और लड़की शरमा जाती. फिर लड़का कालर सीधा करता हुआ “मेरी नींदों में तुम, मेरे ख़्वाबों में तुम...” गाता हुआ निकल जाता. उस जमाने में यही “डेटिंग” हुआ करती थी.
कहानी यहाँ ख़त्म नहीं होती.
इसके आगे कहानी में बहुत कुछ होने की संभावना थी लेकिन संभावना हमेशा संभावना ही बनी रही. चक्कर लगाते, फ़िल्मी गाने गाते, रिझाते और शर्माते साल बीता और लड़की की शादी कहीं और हो गयी. लड़की उस जमाने की थी. वह चुप्पी मार कर पति, बच्चों और घर गृहस्थी में रम गयी और किसी को कभी कुछ पता न चला. हाँ, लड़के के घर के टेप रिकॉर्डर में “भँवरे ने खिलाया फूल, फूल को ले गया राजकुंवर...” कई महीनों तक बजता रहा. फिर वह भी शांत हो गया. और इस तरह मोहल्ले की ये प्रेम कहानी दुनियादारी की भेंट चढ़ गयी.
अगर हमारा बस चले तो हम ‘इफ़ेक्ट’ के लिए बैकग्राउंड में “दो दिल टूटे दो दिल हारे...” भी बजवा दे...
लेकिन कहानी यहाँ भी ख़त्म नहीं होती.
कई साल बीत गए. लड़का और लड़की अब नाती पोते वाले होने को है. लड़की जब कभी मायके आती है तो बाज़ार जाते हुए जिस जगह पर उस लड़के की साइकिल को ठोका था उस जगह पर पहुँचते ही उसके चेहरे पर ठीक वैसी ही मुस्कान आ जाती है जो उस लड़की के गली से गुजरते हुए लड़के के चेहरे पे आती है. इस मुस्कान से इन दोनों का बड़ा पुराना रिश्ता सा बन गया है. और जिन पुराने गानो को सुनते हुए लड़का मुस्कुरा दिया करता है उन्हें सुनकर लड़की आज भी शरमा जाती है.
कहानी यहाँ भी ख़त्म नहीं होती. दरअसल ये कहानी ख़त्म ही नहीं होती. क्यूंकि उस जमाने की प्रेम कहानियाँ कभी ख़त्म ही नहीं होती... कुछ तो था उस जमाने में और उस जमाने की प्रेम कहानियों में... क्यूंकि ये उन दिनों की कहानी है जब प्यार एसएमएस और इन्टरनेट का मोहताज नहीं हुआ था...
[चित्र: गूगल से साभार]
- © स्नेहा राहुल चौधरी
Tuesday, August 2, 2016
एक प्यार ऐसा भी...
आकाश अपनी टाई बाँध
रहा था जब उसकी पत्नी ने उससे पुछा, “सुनो, मैं मोटी हो गयी हूँ क्या?”
आकाश ने घूम कर देखा.
उसकी पत्नी सुषमा अपने वेस्टकोट का बटन लगाने की कोशिश कर रही थी. शायद ये किसी भी
पति के लिए आगे कुआँ और पीछे खाई वाली बात होती लेकिन आकाश ने कभी अपनी ज़िन्दगी
में ऐसे पलों को हावी नहीं होने दिया था. उसने बिना किसी भाव के कहा, “तुम प्रोफेशनल
हो. तुम बेहतर जानती हो.”
सुषमा ने अपने पति की ओर एक बार देखा और फिर चुपचाप अपना बैग निकालते हुए बोली, “आज मुझे ऑफिस छोड़ दोगे?”
“पहले बोलती.” आकाश बस निकलने को था, “आज कहीं जाना है मुझे.”
“ठीक है.” कहते हुए सुषमा तेजी से बाहर निकल गयी.
न सुषमा कुछ पूछती थी और न आकाश बताने की ज़रूरत समझता था.
शायद यही वज़ह थी सुषमा कभी जान नहीं पायी थी कि आकाश वंशिका को भूला नहीं था.
आकाश वंशिका की ऑफिस बिल्डिंग के बाहर था. सड़क के एक किनारे अपनी एंडेवर गाड़ी के अन्दर बैठा, ए.सी. ऑन किये उसके बाहर निकलने का इंतज़ार कर रहा था वह. यहाँ आने से पहले, कई बार उसके मन में यह ख्याल आया था कि इस तरह किसी शादीशुदा औरत का पीछा करना गलत है. लेकिन, नैतिकता की तमाम बातें उसके ज़ख़्मी दिल को सुकून दे पाने में नाकामयाब साबित हो रही थी. पांच साल बीत चुके थे. लेकिन वह उसकी कही हुई एक भी बात नहीं भुला था. अब भी उसके शब्द उसे चुभते थे.
ख्यालों में डूबते उतराते
पांच साल पहले घटित हुई वह घटना फिर से उसकी आँखों के आगे तैर गयी जब उसके फ़ोन पर
एक अनजान नंबर से फ़ोन आया था...
“हेल्लो, आकाश जी से बात हो सकती है?” एक घबराया हुआ स्त्री स्वर था.
“स्पीकिंग... हू इज दिस?” आकाश संभल कर जवाब नहीं दे पाया था.
“आकाश जी, मैं वंशिका बोल रही हूँ.” लड़की ने ज़ाहिर किया और उतनी हडबडाहट के साथ बोली, “मैं आपसे मिलना चाहती हूँ. आज ही. प्लीज़ बताइए, मिल सकते है?”
अब चौंकने की बारी आकाश की थी. “अरे वंशिका जी, आप? हाँ मिल सकते है लेकिन बात क्या है? आप इतनी घबराई हुई क्यों है?”
“मिलकर बताउंगी. लेकिन आपको मेरी कसम है, इस बारे में आप किसी से भी कुछ भी मत कहना. मैं आपको मैसेज करके बताती हूँ कि हमें कहाँ मिलना है.”
और इसके साथ ही फ़ोन कट गया था. चंद पलों बाद ही आकाश के फ़ोन पर उसी नंबर से मैसेज आया था जिसमे एक मामूली से रेस्तरां का पता दिया और मिलने का वक़्त दिया हुआ था.
आकाश भौचक्का सा था. जिस लड़की से उसकी शादी लगभग तय हो चुकी थी वह उससे इस तरह गुपचुप तरीके से मिलना चाहती थी और वह समझ नहीं पा रहा था कि उसे यह बात अपने माँ बाप से कहनी चाहिए थी या नहीं. प्यार, मोहब्बत और रिश्तों के मामले में आकाश का स्वभाव एक पोखर के जैसा था. शांत लेकिन ज्यादा गहरा नहीं. वह एक बड़ी कंपनी में एक अच्छे पोस्ट पर था. ऐसा नहीं था कि उसकी नसों में खून के साथ संस्कार घुले हुए थे. दरअसल उसकी कभी ऐसी इच्छा ही नहीं हुई थी कि ज़िन्दगी में प्यार वाला एंगल होना ही होना चाहिए. धीर गंभीर स्वाभाव वाले आकाश में न तो कभी किसी लड़की ने दिलचस्पी दिखाई और न ही आकाश ने कभी अपने सिंगल होने का शोक मनाया. शायद परिवार के साथ रहने के कारण उसे किसी भी चीज़ की कमी नहीं खलती थी. उसे किसी चीज़ का शौक ही नहीं था. प्यार और शादी को लेकर उसका यही नजरिया था कि सबके साथ ऐसा होता है इसलिए इसे इतना तवज्जो देने की ज़रूरत क्या है.
आखिरकार उसने वंशिका से मिलकर पूरी बात जानने के बाद ही कुछ करने का फैसला किया.
रेस्तरां आकाश की तबियत से कुछ ज्यादा ही गरीब था. जब आकाश वहां पहुंचा तो वंशिका वहाँ पहले से ही उसका इंतज़ार कर रही थी. पहली बार आकाश ने वंशिका को देखा था. यूँ तो कई बार उसकी माँ ने कहा था कि एक बार मिल लो लेकिन आकाश का वही जवाब था, “ज़रूरत क्या है. शादी ही तो करनी है. आपने देख लिया तो बस हो गया. मिल लूँगा किसी दिन. अलग से क्या वक़्त निकालू?”
आकाश ने गौर किया था कि वंशिका तस्वीरों से बिलकुल अलग थी. तस्वीरों में जहाँ वह गंभीर और घरेलु लगती थी वहीँ हकीकत में ठीक इसके उलट लग रही थी. उसने भूरे रंग की शर्ट और नीले रंग की जीन्स पहन रखी थी. कंधे से एक ऑफिस बैग लटका था और वह बेचैनी में उंगलियाँ तोड़ रही थी.
“आई एम् सॉरी. आई एम् लेट.” आकाश ने उस तक पहुँच कर बैठते हुए कहा.
“इट्स ओके.” वंशिका ने बिना किसी भूमिका के कहा, “आकाश जी, आप प्लीज़ इस शादी के लिए मना कर दीजिये. अगर ये शादी हुई तो हम दोनों की लाइफ बर्बाद हो जायेगी. मैं किसी और से प्यार करती हूँ. मैंने घर में सबको ये बात बताई है. लेकिन सब इसे मेरा बचपना मानते है. ऐसा नहीं है कि वो लोग उसे पसंद नहीं करते. एक्चुअली बात ये है कि आपकी हैसियत उससे बहुत ज्यादा है. मैं कुछ भी बोलती हूँ तो घर में सब मुझे दुनियादारी समझा कर चुप कर देते है. वह आपके जितना नहीं कमाता लेकिन जितना करता है वो मेरे लिए काफी से ज्यादा है. मेरे बहुत ज्यादा शौक नहीं है. बस ख़ुशी से और प्यार से रहना चाहती हूँ. अगर आप मना कर देंगे तो मैं घर वालों को उससे शादी करने के लिए मना लुंगी. प्लीज़, मेरी बात मान लीजिये.” वंशिका एक सांस में सब कुछ कह गयी.
ख़ामोशी से सब कुछ सुनने के बाद, आकाश ने एक लम्बी सांस ली और नज़र भर के वंशिका को देखा. न जाने क्यों उसके घरवालों ने जिस ‘बचपने’ की बात कही होगी वह उसके चेहरे पर नज़र आने लगी उसे. भला कौन सी ऐसी समझदार लड़की होगी जो महीने के लाखों कमाने वाले लड़के को छोड़कर अपने निरी हैसियत वाले प्रेमी के साथ शादी करना पसंद करेगी. आकाश को उसका भविष्य साफ़ नज़र आ रहा था. पैसे की तंगी और रोज़मर्रा की ज़रूरतों के बीच अपने बच्चों का भविष्य तलाशती हुई थुलथुल सी औरत जो कभी प्यारी सी वंशिका हुआ करती थी. “खैर”, आकाश ने सोचा, “ऐसी बेवक़ूफ़ लडकियां, यही डीसर्व करती है.”
“ठीक है. मना कर दूंगा.” आकाश ने भी बिना किसी भूमिका के कहा.
“ओह्ह थैंक यू वैरी मच.” वंशिका ने चहक कर आकाश के दोनों हाथों को थाम लिया, “आप बहुत अच्छे है आकाश जी. मैं दुआ करुँगी कि आपको बहुत अच्छी पत्नी मिले. और प्लीज़ इस बारे में किसी से कुछ भी मत कहियेगा.” और इतना कहकर वह लगभग उछलती हुई बाहर चली गयी थी.
आकाश को कुछ महसूस हो रहा था. आहत सा, कुछ अपमानित सा... उसे यकीन नहीं हो पा रहा था कि वंशिका जो खुद एक बेहद साधारण लड़की है, उसे एक मामूली लड़के के लिए छोड़ देगी. उसे तो लगा था कि वंशिका ने कुछ स्पेशल करने के लिए उसे मिलने बुलाया होगा. या वह उसका ‘अटेंशन’ चाहती होगी. लेकिन उसने तो...
आकाश ने शादी के लिए मना कर दिया था. माँ ने पुछा तो कह दिया कि वंशिका उसके ‘स्टैण्डर्ड’ की नहीं है. कुछ दिनों तक घर का माहौल अजीब सा रहा लेकिन उसके बाद सब लोग सब कुछ भूल गए. सिवाए आकाश के... उसके पोखर जैसे शांत मन में उस मामूली सी लड़की ने पत्थर मारकर जो तरंगे पैदा कर दी थी उन्होंने उसे बेचैन कर दिया था. कहते है कि जब तक हमारी ज़िन्दगी में कोई चीज़ नहीं होती है तो कई बार उसकी कमी का एहसास भी नहीं होता. लेकिन एक बार उसका एहसास हो जाए तो उसे भुला पाना मुश्किल होता है. वंशिका के साथ बमुश्किल बिताये उन १५-२० मिनटों ने आकाश का चैन छीन लिया था. वह अक्सर सपने में देखता कि वंशिका रोते हुए उसके पास आई और अपनी गलती के लिए माफ़ी मांगी और आकाश ने हँसते हुए उसे माफ़ कर दिया. लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ. आकाश बेचैनी से इस बात का इंतज़ार करता रहा कि वंशिका अपनी गलती की सजा पाकर उसके पास रोती हुयी आये... दिन, महीने और यहाँ तक की साल भी बीते लेकिन आकाश की बेचैनी कम नहीं हुई. शादी के बाद भी नहीं.. पत्नी सुषमा ने शुरूआती महीनों में पुरजोर कोशिश की कि उसका पति अपनी ज़िन्दगी में उसे भी जगह दे लेकिन नाकामयाब होने पर वह भी हताश होकर अपनी दुनिया में ही रहने लगी. आकाश के गंभीर स्वभाव ने किसी को भी कोई और वज़ह होने का आभास तक न होने दिया.
और आकाश इन सबसे बेखबर अपने छद्म अपमान को झेलता हुआ दिल ही दिल में जलता रहा. जब उसकी बेचैनी उसके बर्दाश्त के बाहर हो गयी तो उसने इन्टरनेट पर वंशिका की बर्बाद ज़िन्दगी का तमाशा ढूँढने की कोशिश की. लेकिन उसे मिली तो बस कुछ तस्वीरें जिनमे बेहद मामूली सी वंशिका एक बेहद मामूली से लड़के के साथ थी. आकाश को ये देखकर धक्का लगा कि वंशिका की आँखों में वही चमक थी जो उस वक़्त उसने देखी थी. “नहीं, नहीं... इन्टरनेट तो झूठी दुनिया है.” आकाश ने खुद को समझाया. उसने फैसला किया कि असलियत में अपनी गलती पर पछता रही वंशिका से मिलेगा और उसे दिलासा देगा.
और आज कई दिनों तक खुद को भरोसा दिलाने के बाद आखिरकार वह वंशिका के ऑफिस के बाहर उसका इंतज़ार कर रहा था. उसकी आँखें घड़ी पर गयी. ६ बजने में कुछ ही मिनट थे. वंशिका कभी भी बाहर निकल सकती थी.
और आखिरकार वंशिका बाहर निकली. आकाश को लगा जैसे वह उसी पांच साल पहले वाले रेस्तरां में पहुँच गया था. क्यूंकि वंशिका बिलकुल पांच साल पहले वाली वंशिका जैसी ही थी. बिलकुल उसी तरह की मामूली सी शर्ट और जीन्स पहने और बालों को पोनी बांधे वह एक ऑटो वाले को हाथ दे रही थी. आकाश उतर कर उससे मिलता उसके पहले ही वह ऑटो में बैठ कर चल पड़ी. आकाश ने उसका पीछा किया. ऑटो सबसे पहले एक प्ले स्कूल के पास रुका. वंशिका अन्दर गयी और ५ मिनट बाद एक २-३ साल के बच्चे को गोद में लिए निकली.
वंशिका का बच्चा!
आकाश को लगा कि जैसे आसमान फट पड़ा...
वंशिका बच्चे को लेकर वापस ऑटो में बैठी और कुछ दूर जाकर एक चाट वाले के पास रुक गयी. उसने ऑटो वाले को पैसे देकर विदा किया और बच्चे को गोद में लेकर उससे बाते करने लगी. बच्चा कभी उसके बालो से तो कभी उसकी उँगलियों से खेलता हुआ हंस हंस कर उसकी बातों का जवाब दे रहा था. इतनी देर में एक पल्सर मोटरसाइकिल वंशिका के पास आकर रुकी. बाइक सवार ने जब हेलमेट उतारा तो आकाश ने देखा कि ये वही मामूली सा लड़का था. बच्चा ने पिता को देखा तो उछल कर उसकी गोद में चला गया. पास रखी एक बेंच पर तीनों बैठे और एक दूसरे से बाते करने लगे. हवा चलने लगी थी और वंशिका की कुछ लटें बार बार उसकी आँखों में आकर फँस रही थी. वंशिका ने एक हाथ से चाट की प्लेट और दूसरे हाथ से बच्चे का बैग पकड़ रखा था. तभी आकाश ने देखा कि लड़के ने वंशिका के बैग में से क्लिप निकाली और उसके बालों को तरतीब कर दिया.
लड़के ने जिस हक़ और दुलार से वंशिका के बालों को संवारा था, जब आकाश ने उसे महसूस किया तो उसे लगा कि जैसे उसके हाथ अचानक से काँप रहे है. तीनों अब भी एक दूसरे से बातें करने में मशगूल थे. वंशिका बच्चे को कुछ खिला रही थी और उसका पति उसे खिला रहा था.
आकाश ने अपनी गाड़ी में लगे शीशे में खुद को देखा. उसे लगा कि उसका विकृत सा चेहरा अब धीरे धीरे सामान्य हो रहा था.
आकाश ने अपनी गाड़ी मोड़ी और चलने से पहले बेहद मामूली सी वंशिका और उसके बेहद मामूली से परिवार को देखा. वही पांच साल पहले वाली हंसी... वही चहक.. एक मामूली से चाट वाले से मामूली सी चाट खाकर खुश होता एक बेहद मामूली सा परिवार... उसने गौर किया कि यह वंशिका पांच साल पहले वाली वंशिका जैसी नहीं दिख रही थी. इस वंशिका के चेहरे पर पांच साल पहले वाली वंशिका से ज्यादा चमक थी.
आकाश को महसूस हो रहा था कि उसकी हैसियत वंशिका से बहुत बहुत नीचे है...
सुषमा ऑफिस से निकल रही थी कि फ़ोन बजा. आकाश का था. शादी के इन छः महीनों में उसके पति ने आज तक कभी भी उसे फ़ोन नहीं किया था. अनहोनी की आशंका से उसने घबराकर फ़ोन उठाया, “हेल्लो, क्या हुआ?”
“ऑफिस से निकल गयी हो क्या?” आकाश का सवाल था.
सुषमा ने महसूस किया कि आकाश के लहजे में एक अजीब सा सुकून था. उसने धीरे से कहा, “नहीं, बस निकल रही हूँ.”
“रुको, मैं लेने आ रहा हूँ.”
सुषमा के कानों में जैसे ही ये शब्द पड़े उसे लगा कि शायद वो सपना देख रही है. उसकी तन्द्रा टूटी जब आकाश ने दुबारा पूछा, “सुनो, मैं सोच रहा था कि आज बाहर डिनर करते है. तुम्हे क्या पसंद है...?”
[चित्र: गूगल से साभार]
- - © स्नेहा राहुल चौधरी
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