Thursday, October 13, 2016

समीक्षा : "ख्वाहिशें... कुछ पूरी, तो कुछ अधूरी सी.."

“ख्वाहिशें – कुछ पूरी, तो कुछ अधूरी सी...” पुलकित गुप्ता लिखित एक समकालीन प्रेम कहानी है. वैसे देखा जाए तो प्रेम कहानियाँ लिखना न तो पुराने दौर में आसान था और न आज के दौर में आसान है. इसका मूलभूत कारण है प्रेम कहानियों का नियमित सांचा. हर प्रेम कहानी में एक नायक होता है और एक नायिका होती है. इनके बीच कभी परिवार या रिश्ते या फिर परिस्थितियाँ बाधक बनती है. अंत में, या तो मिलन होता है या विरह. ऐसे में किसी भी लेखक के लिए इस नियमित सांचे के भीतर रहकर एक अलग तरह की प्रेम कहानी लिखना और पाठकों को मोह लेना मुश्किल होता है. और ये निश्चित ही काबिल-ए-तारीफ़ है कि पुलकित गुप्ता ‘ख्वाहिशें...” के ज़रिये यह बखूबी कर जाते है.



लेखक का परिचय :
पुलकित पेशे से वकील तथा सी.एस. हैं. इसके साथ ही वह सी.ए. भी कर रहे है. “गार्गी प्रकाशन” नाम से उनका अपना एक प्रकाशन संस्थान भी है जिसने उन्हें एक सफल व्यवसायी की पहचान भी दी है. इतने अभिरूपों के बावजूद वह दिल से लेखक है. सोनीपत में जन्मे और बिजनौर में पले-बढे पुलकित ने सेंट मेरी कान्वेंट स्कूल से अपनी स्कूली तथा रोहिलखंड विश्वविद्यालय, बरेली से कॉलेज की पढाई पूरी की.
अपने ख्यालों को डायरी के पन्नों पर समेटते समेटते एक दिन पुलकित ने अपने विचारों को एक कहानी शक्ल दे दी जो उनकी पहली किताब “लाइफ एंड प्रोमिसेस’ [अंग्रेज़ी] के रूप में पाठकों के सामने आई. “ख्वाहिशें” इसी का हिंदी संस्करण है.
ज़िन्दगी को खुलकर जीने में विश्वास रखने वाले पुलकित को फ़िल्में, संगीत तथा क्रिकेट बेहद पसंद है.



कथानक :
“ख्वाहिशें...” का कथानक आम प्रेम कहानियों से थोडा हटकर है. वैसे एक आम युवक की यह कहानी भी कॉलेज, दोस्तों, परिवार, प्रेम तथा करियर के इर्द गिर्द घूमती है लेकिन यहाँ तारीफ़ करनी होगी लेखक की जिसने इसे महज एक ‘आपबीती’ नहीं बनने दिया. नायक और लेखक की तमाम समानताओं के बावजूद यह कहानी सच्ची होने का दावा नहीं करती जो इसे और विश्वसनीय बना देती है.
“ख्वाहिशें...” रचित की कहानी है जो प्यार और करियर के बीच उलझकर कुछ गलत फैसले ले लेता है और यकीनन ज़िन्दगी उसे इसकी सजा देने में कोई कसर उठा नहीं रखती. ज़िन्दगी की इस बेदर्दी से रचित कैसे पार पता है और कैसे अपनी ज़िन्दगी पटरी पे लाता है, “ख्वाहिशें...” इसी की बानगी है.
पुलकित ने कथानक काफी संयमित रखा है. किसी भी घटना का अनावश्यक वर्णन नहीं है. फिर चाहे वह प्यार की बातें हो या दोस्तों के साथ मस्ती, सब कुछ उतना ही है जितना होना चाहिए. कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि पुलकित ने अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ाए ज़रूर लेकिन उनकी लगाम भी ढीली नहीं होने दी.
हालांकि, यह कसी हुई लगाम कई जगहों पर कहानी की संभावनाओं को कम करती है. रचित और राधिका के प्रेम संबंधों को थोड़ा और उभारा जा सकता था. दोस्ती की कुछ यादें और जोड़ी जा सकती थी. पारिवारिक संबंधों में घनिष्टता को दर्शाने के लिए कुछ घटनाक्रम और डाले जा सकते थे. काफी संभव है कि आज के तेज़ी तथा जल्दीबाजी चाहने वाले युवा पाठकों को ध्यान में रखते हुए पुलकित ने कथानक को कसा हुआ बना दिया हो. और यकीनन वह इसमें सफल रहे है.
ये अलग बात है कि जब कोई चीज़ अच्छी लगती है तो उसका ज़ल्दी ख़त्म हो जाना अच्छा नहीं लगता. मेरे साथ भी यही हुआ.

कथा संरचना तथा संवाद :
“ख्वाहिशें...” की कहानी वार्तालाप से आगे बढती है. इस कहानी के अन्दर भी एक कहानी है जो रचित की अपनी ज़िन्दगी की कहानी है जिसे वह ख़ुशी को सुना रहा होता है. पूरी कहानी यादों में कही गयी है. और इसी के अनुसार पुलकित ने अपनी शैली में परिवर्तन किया है. संरचना अच्छी है “ख्वाहिशें...” की. बीच बीच में डाली गयी कवितायें भी अच्छी लगती है.
“ख्वाहिशें...” एक अनूदित किताब है. मूल कहानी अंग्रेज़ी में लिखी गयी है. कहीं कहीं कुछ संवादों में ये अनुवाद ज़ाहिर हो जाता है. और ऐसा महसूस होने लगता है कि यह मूल कहानी नहीं है बल्कि उसका प्रतिरूप है. मसलन, युवा आमतौर पर बातचीत में अंग्रेज़ी शब्दों का खूब इस्तेमाल करते है. कुछ संवादों में उन अंग्रेज़ी शब्दों का शुद्ध हिंदी अनुवाद दिया गया है जो गले नहीं उतरता. हालांकि, यह अलग बात है कि किताब पढने के बाद मूल संस्करण यानि “लाइफ एंड प्रोमिसेस..” पढने की प्रबल इच्छा हो जाती है. हो सकता है कि अनुवाद का यही उद्देश्य रहा हो और अगर यह सच है तो यकीनन पुलकित की अनुवाद टीम इसमें सफल रही है.

चरित्रांकन :
पुलकित ने “ख्वाहिशें...” में चरित्रों की भीडभाड़ नहीं होने दी है. किरदार कम होने के कारण उनके विकास को अवसर मिलता है और उनके व्यक्तित्व के कई रंग उभर कर आते है.
रचित कहानी का नायक है. वह एक आम युवा है. करियर, परिवार, दोस्ती तथा प्यार को लेकर उसके सपने किसी आम मध्यमवर्गीय युवक जैसे ही है. वह कोई सुपर हीरो नहीं है. परिस्थितियों में उलझकर वह कुछ गलत फैसले ले लेता है जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ता है. पुलकित ने रचित के माध्यम से एक सन्देश देने की कोशिश की है कि किस तरह कभी कभी हम अपनी परेशानियों को खुद पर हावी करके इस कदर उलझे रहते है कि इसकी कीमत पर हमारे रिश्तों की बलि चढ़ जाती है. रचित की गलतियां काफी कुछ सोचने पर मजबूर कर देती है. पुलकित की तारीफ़ करनी होगी कि एक महत्वपूर्ण सन्देश देने के बावजूद उन्होंने कहानी को उपदेशक बनने से बचा लिया है.
राधिका कहानी की नायिका है. वह खुबसूरत, मासूम, पढाई में तेज़ और भावुक है. रचित ने जिस तरह से उसका वर्णन किया है उससे मुझे अचानक ही फिल्म “अंखियों के झरोखे से” की लिली फ़र्नान्डिस याद आ गयी जिसे रंजीता ने अपनी अदाकारी से जीवंत कर दिया था. हालांकि, समझदारी के पैमाने पर राधिका मुझे पिछड़ती हुई लगी. तमाम मुश्किलों और परेशानियों का सामना करते हुए एक मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की देश के एक बेहद प्रतिष्ठित संस्थान में दाखिला लेती है. पढ़ाई में अव्वल और दोस्तों तथा परिवार की लाडली होने के बावजूद जीवन में आये भावनाओं के ज्वार को संभाल नहीं पाती और बिखर जाती है. मुझे निजी तौर पर मजबूत स्वभाव इरादों वाली लडकियां पसंद है. इसलिए राधिका जैसी तेज़ लड़की का यूँ अपनी ज़िन्दगी तबाह कर लेना अच्छा नहीं लगा. दरअसल पुलकित ने राधिका के किरदार को रचित की गलतियों की कसौटी के तौर पर गढा है. इसलिए उसका ऐसा व्यक्तित्व होना लाजिमी लगता है.
ख़ुशी “ख्वाहिशें...’ का एक ऐसा किरदार है जो नायिका न होने के बावजूद दिलों पर छा जाती है. कई बारगी तो ख़ुशी का किरदार बाकी किरदारों को भी ढँक लेता हुआ सा प्रतीत होता है. ख़ुशी के किरदार का रहस्य उसे और भी खुबसूरत बना देता है. ख़ुशी के रेखांकन में यकीनन पुलकित की लेखन शैली अपने चरम पर पहुंची है. यह एक ऐसा किरदार है जिसके लिए पुलकित बधाई के पात्र है. जय, तेजा, रचित के पिता तथा भाई इत्यादि भी अपने छोटे सांचे में महत्वपूर्ण बन पड़े है और प्रभावित करते है.


कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि “ख्वाहिशें...” एक प्रेम कहानी के ज़रिये जीवन का अक्सर महसूस न हो पाने वाला महत्वपूर्ण सन्देश देती है. इसे लिखा तो गया है युवा पाठक वर्ग को ध्यान में रखकर लेकिन समकालीन प्रेम कहानियों में रूचि रखने वाले सभी आयु वर्ग के लोग इसे निश्चित ही पसंद करेंगे.

Friday, October 7, 2016

मन्नत

मिसेज शर्मा परेशान थी. सुबह से शाम होने को आई लेकिन उनकी परेशानी ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही थी. आज नवरातों की अष्टमी थी. उन्होंने इस साल इक्कीस कन्याएं जिमाने की मन्नत मानी थी. लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद कन्याएं इकट्ठी नहीं जुट पा रही थी. कुछ साल पहले तक तो कन्याएं खुद ही कॉलोनी के घरों में और आस-पास की सोसाइटीयों में घूमती फिरती थी. अब न जाने क्या हो गया था?

मिसेज शर्मा पूरी कोशिश कर रही थी कि उनके मुंह से कोई गलत बात न निकले. लेकिन जब मिस्टर शर्मा पास की ‘अप्सरा सोसाइटी’ से भी अकेले मुंह लटकाए लौट आये तो उनके मुंह से न चाहते हुए भी निकल गया, “क्या हो गया इन मुइयों को? पहले घर-घर छिटकती थी. आज ढूंढें न मिल रही...’

मिस्टर शर्मा घबरा कर बोले, “राम राम! ऐसा न कहो. नवरातों में लडकियां मां का रूप हो जाती है. अरे आज के दिन तो हर घर में कन्या जीमती है न. इसलिए इक्कीस कन्याएं एक साथ आनी मुश्किल हो जाती है. दो तो अपने ही घर में है और पांच-सात तो अपने पड़ोस में है ही. मैंने दो-तीन घरों में और कन्याओं को देखा था. सबको बोल दिया आने को. आ जायेंगी शाम होने से पहले. तुम बस तैयारी पूरी रखो.”

मिस्टर शर्मा की बात सुन मिसेज शर्मा को थोड़ी राहत मिली और वह थोडा सहज होकर बोली, “इसी को कहते है देवी माँ बिना परीक्षा लिए कोई मन्नत पूरी नहीं होने देती. और साल देखिये, मन्नत न होती थी तो समय से कन्या जिमा लेते थे. इस साल मन्नत है तो सुबह से घर के सारे ‘मरद मानुष’ भूखे बैठे है और अभी तक कन्याओं के दर्शन भी ना हुए है.”

“हो जाएगा... हो जाएगा... चिंता न करो...” मिस्टर शर्मा ने दिलासा देते हुए कहा.

कुछ वक़्त और बीता. दिया बाती की बेला आने को थी. मिसेज शर्मा घबराकर बाहर दरवाजे की तरफ बढ़ने लगी. तभी उन्हें एक दूसरे के हाथों में हाथ डाले हंसती हुई करीब १०-११ कन्याएं आती दिखाई दी. छोटी छोटी बच्चियां माता का रूप धरे अपनी चुनरियाँ संभालती हुई खिलखिलाती चली आ रही थी. मिसेज शर्मा हुलसते हुए अन्दर गयी और बहु को आवाज़ लगायी, “सुनीता, आसन लगाओ. माताएं आ रही है.” और फिर उसी तेज़ी से वापिस बाहर गयीं ताकि कन्याओं को अन्दर ला सके.

लेकिन इससे पहले कि कन्याएं मिसेज शर्मा के घर पहुँचती, पड़ोस के घर से मिश्राजी का बेटा निकला और सभी कन्याओं को एक-एक चॉकलेट पकड़ाता हुआ अन्दर ले गया. लडकियां उछलती कूदती उसके साथ चली गयी.

मिसेज शर्मा सर पकड़ के बैठ गयी. अचानक से उनका गला भर आया और वह सोचने लगीं, “माता कितनी परीक्षा लोगी? भरी घर पोतियाँ है. अब बस पोते की मन्नत पूरी करवा दो... और कुछ न चाहिए, माता...”


[चित्र: गूगल से साभार]
© स्नेहा राहुल चौधरी